Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

विधि के हाथ कुछ नहीं

 



विधि के हाथ कुछ नहीं

निराशा ने , ब्रिजेश के ह्रदय में आशा की जगह ही शेष नहीं रखी , जो वह कभी सोच पाता, मनुष्य का ह्रदय अभिलाषाओं का क्रीड़ास्थल और कामनाओं का आवास है | उसने तो जिस घरौंदे को बनाकर रखा था ; वह दो दिन भी नहीं टिक सका | एक दिन बादल घिर आये, मूसलाधार पानी बरसा, और अपने साथ उस घरौंदे को बहा ले गया, अन्यथा वह तपस्वी बनकर जीवन नहीं गुजारता |
सच मानो ऋचा, तब बादलों की काली-काली घटाओं को देख मैं डर गया था | मुझे ऐसा प्रतीत होता था कि जल-थल अब एक हो जायगा, तभी तुम पछुवा हवा बन मेरे जीवनोकाश पर छा गई, और सारी घटा काई की भाँति फट गई | मगर, आज फिर से वो काली घटा आकर छा गई है | बिजली तो ऐसी कड़कती है , कि मार ही डालेगी |
ऋचा ने देखा---- ब्रिजेश का चेहरा फीका पड़ने लगा है, और आशाएँ शोक बनकर नेत्र मार्ग से बही जा रही हैं | उसने झटपट ब्रिजेश को अपना सहारा देती हुई, खाट पर बिठा दी, और बोली------- ब्रिजेश ! मैं तुम्हारी अंतर वेदना से भलीभाँति परिचित हूँ , तुम क्यों अपने अधिकार का बोझ उस पर डालना चाहते हो, जब कि वह लेना नहीं चाहता | अब तक तो तुम स्वयं अपने जीवन-सागर के रक्षातट थे, माना कि वह तट पुराना होकर कमजोर हो रहा है , और तुम्हारी आकांक्षाएँ इसी तट पर सोती हैं | कोई आकर इसे ध्वंश न कर दे , तब मेरी डगमग करती जीवन-नौका का पतवार बन, मेरी जिंदगी को भव सागर पार कौन करायेगा |
मेरी मानो, यह सब सोचना छोड़ ब्रिजेश दो | ये जो घटा है, ये इसलिए इतनी काली है, कि यह खुद में प्राणी-जीवन की अमृत कही जाने वाली विशाल पानी का भंडार ली हुई है, जो थोड़ी देर में धरती को दान कर पहले की तरह खाली हो जायेगी | मगर इसे देख, तुम क्यों इतना परेशान हो रहे हो ? जानते हो, जो प्राणी इतना बड़ा दानी हो, वह दया, धर्म से शून्य कैसे हो सकता है ? दरअसल तुम जैसे दुर्बल स्वास्थ्य के मनुष्य, यदि परहेज और विचार से रहे, तो बहुत दिनों तक जिंदा रह सकता है , क्योंकि परहेज विचार की सीमा से कभी बाहर नहीं जाते |
ब्रिजेश ऋचा की बातों का कोई जवाब न देकर मुडैया में आकर खाट पर बैठ गया , और करूँ स्वर में पूछा ------ क्या ऋचा, आजकल जो मैं अनुभव कर रहा हूँ , क्या तुम भी वैसा ही करती हो ?
ऋचा------- जहां सैकड़ों गेम हार चुकी हूँ, वहां एक और सही; सोचकर तुम मेरी तरह चिंतामुक्त क्यों नहीं हो जाते ? मैं भी जानती हूँ , पूर्णता के लिए पारिवारिक प्रेम, त्याग और बलिदान का बहुत बड़ा महत्त्व है | पर यह भी सच है, कि मोह में असक्त होने से मानवता का क्षेत्र सिकुड़ जायेगा, नई-नई जिम्मेदारियाँ आ जायेंगी, और हमारी सम्पूर्ण शक्ति उन्हीं को पूरा करने में लग जायेगी | मैं नहीं चाहती कि तुम जैसे, विचारवान, प्रतिभाशाली इन्सान की आत्मा
ऐसे कारागर में बंद हो जाय | अभी तक तुमने जो किया, वह हमारा जीवन-यग्य था, जिसमें स्वार्थ हेतु थोड़ा स्थान था | मैं उसे शून्य नहीं करना चाहती |
वे भावनाएँ, जो कल तक तुम्हारे समक्ष स्वप्न-चित्रों की तरह आई थीं , जो तुम्हारे रोम-रोम में उदय और उत्कर्ष का अनुभव कराता था , लगता आज वही भावनाओं ने फिर से सर उठाया है | मगर पूर्ण होने के लिए नहीं, क्योंकि तुम्हारी अभिलाषा-वाटिका की नवीण कलि, खिलने के लिए नहीं , मुरझाकर मिटटी में मिल जाने के लिए आई है | योगेश ( एकलौता पुत्र का नाम ) की नफ़रत उसके पत्थर दिल पर दूब जमने नहीं देगा |
ब्रिजेश ने व्यथित कंठ से कहा ------- तो क्या, वह जिस सुरम्य उद्यान में खेलकर बड़ा हुआ , सौरभ, वायु का आनंद लिया, उसे उजाड़ देगा ? माँ-बाप के प्रति जो उसके दिल में प्रेम, प्रतिष्ठा था, उसे जल-कण की भाँति उड़ा देगा | सिर्फ इस संताप को शांत करने के लिए तुमने उसकी पत्नी का दासत्व स्वीकार नहीं की |
ऋचा का स्वर उसके बस में नहीं था , इसलिए उसने ब्रिजेश की बातों का कोई जवाब नहीं दिया, सिर्फ दीवार से टंगी योगेश की तस्वीर को टकटकी निगाह से बैठी देखती रही |
ब्रिजेश, ऋचा की चुप्पी से भयभीत हो आवाज देकर पूछा------ ऋचा ! चुप क्यों हो गई ? फिर भी ऋचा चुपचाप बैठी रही, मानो साँप सूंघ गया हो | भयभीत होकर ब्रिजेश, ऋचा के पास आया, और आर्द्र कंठ से कहा ----- निराश होने की कोई बात नहीं, सुख में आदमी दान देता है, तो दुःख में भीख तक माँगता है | उस वख्त आदमी का वही धरम होता है | शारीर अच्छा है तो हम बिना स्नान-पूजा किये, मुँह में पानी नहीं डालते , पर बीमार रहने पर, बिना नहाए-धोये खाट पर बैठकर भोजन करते हैं | उस समय का वही धरम है | तुमने तब योगेश की पत्नी का दासत्व स्वीकार किया , उस बख्त इसलिए कि वह बीमार थी, मगर अब ----- अब क्यों ? अब तो वह भली चंगी है |
फिर अफ़सोस करते हुए कहा------ घर में सेरों दूध आता है, मगर तुम्हारी कंठ टेल एक बूंद भी नहीं जाने देती | उसकी भवें तुम पर हमेशा तनी रहती हैं, मुझे दुःख है कि बहू तुमको सजीव मनुष्य नहीं, केवल हाड़-मांस का पुतला समझती है | ठीक तरह से याद नहीं , पर इतना भलीभाँति याद है | पलंग पर बैठकर वह मदारी की तरह तुमको दिन भर नचाती थी | कभी आराम नहीं करने देती थी , योगेश ने भी आँखें मुँद ली थी | परमात्मा साक्षी है , तुमको दिन भर एक पाँव पर खड़ा देख, मेरा दिल कितना रोता था | मैं नहीं बता सकता , बावजूद उसे तुम्हारी श्रद्धालुता और निर्मलता में स्वार्थान्धता और मलिनता दीखती थी | जब कि तुम्हारी श्रद्धा में कितना त्याग, विनय और दया थी, इतना करने के बाद भी तुम्हारे प्रति बहू की आत्मीयता का विकाश नहीं हुआ |
उसके ह्रदय में कुछ ऐसे काले धब्बे थे, जिन्हें दिखाने की उसे साहस नहीं होती थी | कारण वह कुछ न कुछ छिपाने और दबाने के लिये मजबूर थी |
ऋचा इतना कहकर शोकमग्न हो गई, ब्रिजेश की समझ में नहीं आ रहा था , कि इसे कैसे संतावना दूँ | अकस्मात ऋचा उठ खड़ी हो गई, और उद्दंड विचारों में डूबी हुई ऊपर आकाश की ओर देखकर बोली------- लोग वृथा ही तुम्हारे रंग को देखकर डरते हैं | जब कि तुम निर्मल, स्वच्छ , इर्ष्या और द्वेष जैसे मलिनताओं से रहित ; विनय, क्षमा, और शांति से परिपूर्ण हो | तुम्हारा चीखना, चिल्लाना, साफ़ बता रहा है कि तुम परम उदार भी हो, फिर भी काले रूप को देख धरतीवासी अपना माथा क्यों पीटते हैं ?
क्यों , कहते हैं , कि इसमें न देवत्व है, न मनुष्यत्व, केवल मदांधता है ; अधिकार का गर्व है, जो आकाश से धरती तक गर्जन कर लोगों को डराता है | इसमें ह्रुदयहीन निर्लज्जता है | उपासना के काबिल तो किसी भी तरह नहीं है | इसके कण-कण में आग है भरा हुआ, इसमें जगह कहाँ खाली जो आत्म-समर्पण रहेगा, यह एक मायाविनी है |
तो क्या, मेरी बहू भी कोई मायाविनी है ; मैं भी उसके हाथों कठपुतली बनी हुई हूँ | पहले एक बहु का रूप दिखाकर मुझे भयभीत किया , अब दूसरा रूप दिखाकर मुझे परास्त कर रही है | उसका वास्तविक रूप क्या है, मैं नहीं जानती | उसकी छोडो, मैं अपने ही विषय में नहीं जानती | आज क्या हूँ, कल क्या हो जाऊँगी ? मेरा अतीत दुखदायी रहा, तो भविष्य स्वप्न , मेरे लिए केवल वर्तमान है; जिसकी डोर है, बहु के पास ; विधि के हाथ कुछ नहीं |

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ