Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

विधु हुआ है बावला

 

विधु हुआ है बावला



प्रिये ! घर  से निकलकर आँगन में आओ

देखोकान  धरकर सुनोतीर –सा क्षितिज

उर को  चीरतीबजतीदंग करती आ रही

शृंगी ढाक संग मृदंग   की आवाज

लगता  नियति ,तिमिरजल में स्नान कर

नील नभको  सुना  रही  है नीरव गान

या विधुहुआ हैबावलातुड़ाकर

तुम संग जन्मों का बंधन,करवाना चाह रहा

निस्सीमतासंग फ़िरसे मेरा ब्याह


संग  पुरोहितपरिजनपुरजन सभी  हैं साथ

जो  अश्रुमुख से कर रहे है राम नाम का जाप

प्रचंड गंगा की हिलोर पर हिलडुल रहा मुण्डमाल

तट  पर  खड़ा अघोर नाच रहादे-देकर ताल

आगे-आगे  चल  रहा  मूक-बधिर मेरा कर्णधार

जिसके  सर पर  है पानी भरामाटी का घड़ा

हाथ में झुलाये रखा है ,मेरी मुक्ति की आग


मेरी यात्रा के अनन्त पथ परस्वागत में

प्रलय  केतुफ़हराताखड़ा  महाकाल है

जो  समझा रहा मनु पुत्र कोकह रहा है

ओ शोभा ! पावक कुण्ड के तान-तान पर

यहाँ   फ़न उठाये  खड़ाहैव्याल



तुम्हारी आँखों  को,यह कर्म लोक हैयहाँ

प्राण को एक पल भी आराम नहीं मिलता

सतत संघर्ष,विफ़लता,कोलाहल चलता रहता

यहाँ  शीतलता का  एक कण भी नहीं है 

यहाँ  चतुर्दिक  बिछी हुई है आग ही आग


इसलिए  निकल  चलो  इस चक्र से

लौट चलो  तुम  वहाँजहाँ खिलते

तारे,  मृग ,जुतते  विधु रथमें

स्नेह -संबल  दोनों  रहते साथ-साथ

चेतना का साक्षी मानवहृदय खोलकर

हँसताकुसुम धूलि  मकरंद घोल से

शीतल करती,अग्यात मंदगामी की धार


Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ