विजयादशमी
स्वप्नों के शिखर पर,निज छाया के आनन में
निखिल छवि की छवि–सी, जीवन की बूँदों में
मैंने देखा है, श्याम वक्ष, शोभा-सी उज्ज्वल
श्रद्धा-प्रीति से अभिषेकित, संगीत – सा हृदय-
स्पंदनवाला कृपाला अयोध्यापति श्रीराम को
विजये ! तुमने भी तो देखा है, उस धर्मभीरु
सात्विक,पितृभक्त,निश्छलमन करुणानिधान को
जो पिता का वचन निभाने , पहले वनवासी हुये
फ़िर , विधाता उनके वाम हुये, लंकापति, राक्षस
रावण, धोखे से, जनकनंदिनी को हर ले गये
अर्धांग्नि की विछोह-पीड़ा के, प्रण्य सिंधु के तल में
वे इतने विकल हुये, जीवन का सुख-दुख, उनको
देखकर,स्वर संगीतों में होता झंकृत,यह भी भूल गये
बाँहों में अम्बुधि – अगाध को थामनेवाले
इंगित कर तूफ़ान को ठहराने वाले
धनुषवार की महिमा क्या है,विनय किसे कहते हैं
भलिभाँति जानते हुये भी, असहाय से वन-वन
भटकने लगे , फ़ूल-पत्ते-झरनों से पूछने लगे
क्या तुमने मेरी प्रिया, सीता को कहीं देखा है
जिसे धर्म-छल से,राक्षस रावण हर ले गया है
विजये ! कैसे हुआ, उस पापी का अंत
जिसका रक्षक बल था, राक्षस – सैन्य
और बीच में फ़ैला हुआ था,सिंधु विराट
कैसे कटा अभिमानी, अन्यायी का पंख
कैसे दहला ब्रह्मांड,एकमात्र तुम साक्षी हो
हे मातॄमूर्ति चिरमंगली, तुम्हारे आने के
चरण - चाप की आवाज को सुनकर
हम हिन्दुओं के हृदय में होता कितना हर्ष
मन के भीतर मन नहीं समाता,जन-मंदिर में
मंगल ध्वनि उठने लगती, घर - घर
में बजने लगता, विजयी शंख
युग- युग की जो ऋद्धियाँ यहाँ उतरी हैं
धर्म सिद्धियाँ जो यहाँ छिपी हुई हैं
दोनों को आह्वान कर, तुम सिखाती हो,यह
समय नहीं सोने का,जागो समय है जगने का
नहीं तो पावक, हिम को फ़ोड़कर मुँहबाये
जो निकल रहा है,वह तुमको निगल जाएगा
चतुर्दिक है धुआँ-धुआँ, घुटन भरी फ़ैली हुई
तुम्हारे आँख मुँद लेने से दीप्ति में नहीं बदलेगा
निज रक्षा में युद्ध पुण्य है या दुष्पाप
व्यर्थ होगा करना इस पर विवाद
मैं तो इतना समझती, जिसका ध्येय
केवल मानवता को करना है ध्वंश
उसे जीवित रखना है सबसे बड़ा है पाप
विजये ! याद रहेगा तुम्हारा यह संवाद
ऐसे भी सभी जानते,स्नेह मानव का आभूषण है
स्नेह है जीवन का सार,तभी तो फ़ट जाता है
विजयी का भी अंतर, देखकर नरसंहार
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