वीरगाथा
मन कहता है, मैं वीरगाथा लिखूँ
वंदना करूँ मैं उनकी, जो आज़ादी की
दृढ़ आशा लिए, रवि- सा उगकर
घोर तिमिर के गह्वर में खो गये
जो आज भी शून्य में, बाँधकर सेतु
फ़हराते हैं, भारत की स्वतंत्रता का केतु
जो कह गये, क्षितिज की लौहकारा को
तोड़कर फ़िर आऊँगा लौटकर,आये न कभी
जिनकी यादों की कतारें,कश्मीर से कन्याकुमारी तक
हैं लगी हुई, दिल से दीवारों तक है, तस्वीर छपी हुई
सोचती हूँ मैं, पहले उनकी गाथा लिखूँ
रुंड-मुंड के लुंठन में, नृत्य करती मीच लिखूँ
जलियाँवाला बाग की धरती पर रुधिर का कीच लिखूँ
आदमियत के लहू से आदमी का स्नान लिखूँ
मन कहता है,मैं वीरगाथा लिखूँ,मगर पहले क्या लिखूँ
ऊर्मियाँ बड़ी - छोटी, वारि होता एक समान
जीवित रहकर मन-प्राण-धन से भारत माँ की
आज़ादी में लगे रहे जो मानव महान, उन्हें लिखूँ
या मृत्ति पर खींच, स्वतंत्र भारत की अमर रेख
मिट गये जो भारत के लाल,उनकी गाथा लिखूँ
बसता जो परिधि से आगे,बनकर जीवन का ध्रुवतारा
जो आकार में देवताओं से भी है बड़ा
जिनका विजय-नाद आज भी हवाओं में गूँज रहा
जिनका यश दिनकर, प्रसाद, पंत, पहले ही गा चुके
इन विभूतियों के सम्मुख अब मैं क्या गाऊँ
फ़िर भी मन कहता मुझसे, मैं वीरगाथा लिखूँ
चरण - चरण पर मिलता है
जिनके बलिदानों का चरण- चिह्न
दीखती जिनमें काली कोठरी की
दंड यातना, कोड़ों की मारें
उनकी वीरगाथा लिखूँ, या
जिनकी गौरव ज्योति मलिन
पड़ी है, केवल नाम है बाकी
जो अपने जिगर के टुकड़े का
कटता शीश देख पर्वत – सा अड़े रहे
हिले न इंच भर भी,सूख गया अन्त:सलिल
आँखों में आया न एक बूँद भी पानी
उनकी गाथा लिखूँ, मन कहता है
मुझसे , आज मैं वीरगाथा लिखूँ
जो भारत माँ को कठिन घड़ी में देख
दिव्यलोक से धरती पर उतर आया
और कहा, मुझे नहीं कामना यश की
मैं तो आया हूँ तिमिर पुत्र के दस्यु
फ़रंगियों को इतना समझाने, यह भारत है
यहाँ डँसे अगर किसी एक को सर्प
तो सभी मिलकर रोते हैं,तुम्हारे जैसा नहीं
अपनी रक्षा में,पिता-भाई का सर कटवाते हैं
मुँद-मुँदकर पृष्ठ, शील की सीख शिखलाते हैं
त्याग को पाप, पाप को पुण्य कहाते हैं
या मैं उन वीर मनस्वी की गाथा लिखूँ
जिनके आने से ताप शांत होकर
वन हो गया हरित - सुख शीतल
सूखे तरू में फ़ूटे नये कोमल पल्लव
या मातृ मुख की वेदना,वैधव्य चित्कार लिखूँ
मन कहता है, मैं आज़ वीरगाथा लिखूँ
या जिनकी गौरवगाथा, उपकूलों में छिपकर
कीर्ति सौरभ बन गमक रही है
ओ हमारे अतीत,भारत के अभिमानी! ऐसे तो
अंकित है , तुम्हारे अभियान की कहानी
याद है जन-जन को,तुम्हारे त्याग की जुवानी
पत्थरों में, दीवारों में, सागर में लहरों पर
फ़िर भी मन कहता है, मैं वीरगाथा लिखूँ
मगर द्विविधा में हूँ,लिखूँ तो पहले क्या लिखूँ
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