Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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वह कौन है

 

वह  कौन   है

कौन है वह, जो अंतर पथ से आकर
हर क्षण मुझमें कसक बन रहता
प्रीति के कंपित तारों से,मेरे प्राणों के
उर व्यथा को मथित कर, अलकों से
अश्रु बन ढुल – ढुलकर बह जाता

किसके लिए कृश ढाँचे में, जकड़ा प्राण मेरा
जीवन की चिता बनाकर, सुलगाकर ज्वाला
जग के इस घोर तिमिर में,फ़ैलाना चाहता उजाला
चिंता करती हूँ मैं जितनी, उतनी ही मेरे
जीवन अनंत में, दुख की रेखाएं बनतीं
स्मर – शर बेध, बढ़ाती मन की पीड़ा

किसकी तृषा से मेरा शीतल प्राण,धधक उठता
किसकी नीरव वाणी,छिप-छिप कर मेरी हृदय
शिशुता को आवाज देकर बुलाती, कहती
मेरा हृदय, मनोभव का आकार खोकर भी
तुम्हारी अलकों की डोरी से उलझा रहता

सूर्य –चन्द्र की आभा में होकर लय
तुम्हारी प्राण इन्द्रियों से मिलने आता
धीर समीर,परस से पुलकित,विकल श्रांत
मन को तुम्हारे पास रखकर,उर्ध्व गगन
में जा, रजनी में , तारे बन मुसकाता


मगर मैं कैसे बताऊँ उसे,प्राची के अरुण मुकुर में
देखती हूँ जब सुंदर मुख प्रतिबिम्ब तुम्हारा
जीवन का मधु प्याला, फ़िर से छलक उठता
निशीथ की नग्न वेदना, दिन की दम्य दुराशा
हिला द्रुम- पुंजों का हृदय ,मुझे जीने नहीं देता

परित्यक्ता वैदेही - सी भटकती हूँ मैं यहाँ
स्मृति, सन्नाटे से जब भर जाती, तब
खोज धरा में स्थान, सो जाती हूँ मैं यहाँ
कहते हैं, जिस पंचतंत्र से बना है यह देह मंदिर
उसी से है देव मंदिर भी यहाँ बना
पूछती हूँ उस देवता से, जो मेरा सब कुछ था
जिसे मैंने अपना सब कुछ दान कर दिया
वह आज मेरा सुख चुराकर क्यों भागा
क्यों उसके लिए जीवन मेरा सिसकी भरता
साँसों का दोहरा सीकल,पग को चलने से रोकता

उस पर तड़पन कहती, तुममें और
कितना मधुरस है बाकी जो
अंत:स्थल में छिपी तसवीर को
प्रतिपल अश्रु मुक्ता की माला पहनाती
प्राण तुम्हारा,अगरु दीप-सा जलता रहता

सोचती हूँ , क्या कहूँ जिसके लिए
मेरा शरीर प्राणहीन, जीवन मृत रहता
वह और कोई नहीं, मेरी ही काया का है साया
जो दूर-दूर रहकर भी,मेरे प्राणों के करीब रहता


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