यादें
माटी के एक छोटे से घर के कोने में, बाँस की खाट पर लेटा बेनीमाधव टूटे ठाठ से, खुले आकाश की ओर देखकर, अपनी पत्नी सुखनी से कहा, ‘लगता है, सुबह होने वाली है, तारेगण चले जा रहे हैं|’
पति की बात सुनकर, सुखनी आकाश की ओर देखी, बोली, ‘नहीं, अभी रात बाकी है| तारे बादल में छिप गए हैं, लगता है कल बारिश होगी|’
बेनीमाधव चिंतित हो बोला, ‘क्या बारिश होगी? अब क्या होगा? चने, गेहूँ के बीज कल ही मैंने बोया है, सभी सड़ जायेंगे| ईश्वर से कहो, ऐसा हरगिज न हो, वरना इस साल दाने-दाने को तरसने पड़ेंगे|’
पति की बात सुनकर सुखनी का चेहरा फीका पड़ गया| उसके ह्रदय की दुर्बलता, उस दशा में पहुँच गई कि वह काँपने लगी; जीवन ख्याल से उसके रोंगटे खड़े हो गए| वह सोचने लगी, ‘यह सच है कि हम गरीब हैं, मगर किसी प्रकार की कमी भी तो नहीं है| अगर बारिश हुई, तब जैसा कि माधव बोल रहा है, ‘क्या होगा?’ मुझे अपनी चिंता नहीं, अपने दोनों बच्चों की चिंता हो रही है|’
माधव, आँसू भरी आँखों से तंज भरकर कहा, ‘जानती हो सुखनी! बचपन से मेरी जिंदगी, छलमयी आशा और कठोर दुराशा का खिलौना बनी रही है| कितनी बार मन में तरंगें उठीं, कि ऐसे जीवन का अंत कर दूँ|’ क्या होगा, ऐसा जीवन जीकर, फिर अफ़सोस कर बोला, ठीक तरह से दुनिया को समझा भी नहीं था, कि पिताजी हम तीनों भाई-बहनों को माँ के साथ, इस निष्ठुर दुनिया में रोता-विलखता छोड़ चले गए| तब से आज तक, ठोकर ही तो खा रहा हूँ| बाबजूद, न पिछले कर्मों का पूरी तरह प्रायश्चित कर सका, और न ही अपना भविष्य सुधार सका| आगा-पीछा तो कोई था नहीं, किसके कंधे पर सर रखकर रोता, सो जाता; रास्ता भटकता हुआ बड़ा हुआ| माँ रोटी की तलाश में सुबह, सूर्य उदय के साथ घर से निकलती थी और शाम, सूर्य ढलने के बाद लौटती थी| सुखनी, सगर्व दृष्टि से पति की ओर देखकर बोली, ‘अब सो भी जाओ, रात अभी बाकी है| लेकिन माधव सोता कैसे? फसल की चिंता ने उसकी चेतना को आक्रान्त कर दिया था| जैसे फैला हुआ पानी एक राह में बहकर वेगवान हो जाता है, वही मनोवृति उसकी हो रही थी| वह उसी उन्माद में उठा और अपने मरहूम पिता विष्णु के तस्वीर के सामने जाकर खड़ा हो गया| उसके होठ इस तरह हिल रहे थे, मानो वर्षों की जमा यादों की पूँजी पिता को सौंपना चाह रहा हो; बताना चाह रहा हो, कि पिताजी, जिंदगी की नाव मुमकीन है मझधार में डूब जाए| यह संसार किसी न्यायी ईश्वर का नहीं है| जो चीज जिसे मिलनी चाहिए, उसे नहीं मिलती, लेकिन हम कर ही क्या सकते हैं| हम जंजीरों में जकड़े हुए, उसके गुलाम हैं| बिना उसके हुक्म के हम अपना हाथ-पाँव नहीं हिला सकते, हम कोई दूसरी राह भी तो नहीं ढूढ़ सकते| इस दुनिया का इंसाफ कहता है, कम से कम मैं, इस दुनिया में जीने काबिल नहीं हूँ| दुनिया में सबसे बदनसीब हूँ मैं; तुमको खोने के बाद, कुछ ही दिनों बाद माँ भी हमें छोड़कर चली गई’| माधव, माँ को याद कर रो पड़ा, माँ का वह स्मृति-चित्र उसके सामने नाचने लगा कि जब उसे रोते देख माँ गोद में उठा लिया करती थी और वह, माँ के आँचल से लिपटकर निहाल हो जाया करता था|
सुखनी पति के मन को ताड़कर कही, ‘आप यहाँ क्या कर रहे हैं? चलिए, चलकर सो जाइए| ईश्वर हैं, वही आगे संभालेंगे|’
माधव झल्लाकर कहा, मेरे पिता, राम-नाम की खेती में, नित्य सत्य नारायण कथा सुनाने वाले, बेसमय राम के प्यारे हो गए| अपने बालपन में, मैं भी इसी में लगा रहता था| आज दुर्दशा देखो; राम का न्याय देखो! गज की रक्षा के लिए बैकुंठ से भगवान विष्णु और द्रौपदी की रक्षा के लिए प्रभु कृष्ण दौड़े आये थे, मगर अपने ही भक्त ( मेरे पिता ) की रक्षा नहीं कर सके| बे-उमर मेरे पिता को उन्होंने अपने पास बुला लिया| जब से पिताजी गए हैं, श्रीराम सो गए, और मैं जाग रहा हूँ|
सुखनी ने, ईश्वर के लिए इस कदर बात करने से, रोकते हुए कहा, ‘ईश्वर के लिए इतने कटु वचन क्यों बोलते हो माधव?’
वे मेरे मालिक हैं, उनके द्वारा न्याय और अन्याय, दोनों का आदर हमें करना होगा, कारण ईश्वर भाग्य-विधाता हैं; प्राणियों के जनम-मरण, सुख-दुःख, पाप-पुण्य सब ईश्वर के विधान हैं|
माधव गंभीर भाव में बोला, तुम्हारा ख्याल बिलकुल गलत है| ऐसे भी ईश्वर ने औरत को बफा और त्याग की मूर्ति बनाया है| वह हर कष्ट को हँसकर झेल लेती है| तुम पूछोगी, मर्द ऐसा क्यों नहीं बन सकता, तो सुनो, मर्द में इतना सामर्थ्य नहीं होता| वह खुद को मिटाएगा, तो नष्ट हो जायगा| वह तेज-प्रधान जीव है और घमंड में यह सोचकर कि वह ज्ञान का पुतला है, सीधा ईश्वर में लीन होने की कल्पना करता है| स्त्री, पृथ्वी की तरह धैर्यवान है, शान्ति-संपन्न है, सहिष्णु है| पुरुष में नारी के गुण प्रवेश कर जाए तो वह महात्मा बन जाता है| मगर जब नारी में पुरुष के गुण आ जाते हैं, तो वह कुलटा हो जाती है|
सुखनी कुछ देर द्विविधा में पड़ी रही, फिर बोली, ‘तुमको ईश्वर से इतना बैर क्यों है?’
माधव अपील भरी नज़रों से सुखनी की ओर देखा| देखते ही निर्मल क्रोध की एक लहर नसों में दौड़ गई और आँखों से बह निकली| उसके बाद माधव का साहस हार गया| वह दोबारा सुखनी की ओर नहीं देख सका, संज्ञा शून्य हो गया| सारे मनोवेग शिथिल पड़ गए, केवल आत्मवेदना का ज्ञान आरे के समान ह्रदय को चीरने लगा| उसका वह अपना, जो उसे जान से अधिक प्यार करता था, जो उसके मन का रक्षक, उसके आत्मगौरव का पोषक, धैर्य का आधार, और उसका जीवन अबलंव था, उससे छीन लिया गया था| माधव के ह्रदय आंधी का वेग जब थोड़ा शांत हुआ, तब एक लम्बी साँस छोड़ते हुए उसने कहा, ‘सुखनी! माफ़ करना, तुमने एक पक्ष का चित्र खींचा, कृपा करके दूसरे पक्ष के बारे में जान ली होती, तब कभी नहीं कहती, मेरा ईश्वर से बैर क्यों है? जानती हो सुखनी! मैं कोई सघन वृक्ष नहीं, जो समीर और लू, वर्षा और पाले में समान रूप से अपनी जगह, बिना एक इंच हटे, खडा रहूँ| मैं एक मनुष्य हूँ, जिसके लिये संयम और नियम मानवचरित्र के स्वाभाविक विकास के बाधक होते हैं| मैं यह भलीभाँति जानता हूँ, कि वृद्धि के लिए अग्निमय, प्रचंड वायु उतनी ही आवश्यक है, जितना शीतल मंद समीर, शुष्कता उतनी ही प्राणपोषक है, जितनी आर्द्रता मुझे मालूम है, चरित्रोन्नति के लिए विविध प्रकार की परिस्थितियों का होना जरूरी है|’
सुखनी, ‘तब तुम दरिद्रता को काला नाग और दुःख को यक्ष श्राप क्यों समझते हो, जब कि चरित्र गठन के लिए यह संपत्ति से ज्यादा जरूरी है| यह मनुष्य में दृढ़ता और संकल्प, दया और सहानुभूति उदय करती है|’
माधव ने सुखनी के चेहरे की ओर प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा, बोला, ‘अबोध बच्चे के सर से पिता का साया उठ जाना, भादों में घर गिरने के बराबर होता है, जिसका फिर से बनना मुश्किल होता| जानती हो, पूर्णता के लिए, बच्चे की आत्मा के विकास के लिए, पिता का होना अति आवश्यक है, जो कि मुझे नहीं मिला| मैं अभागा. जनमते पहले पिता को खोया, और कुछ बड़ा हुआ तो माँ को|’
सुखनी, पति की बात को गौर से सुनती रही, फिर बोली, ‘मेरी मानो माधव, तुम अपनी आत्मा को पिता की स्मृति के पिंजड़े में कैद मत करो| वे तुम्हारे भविष्य मार्ग में बाधा पहुँचायेंगे| तुम विचारवान हो, प्रतिभाशाली हो| तुम जैसों को अपनी आत्मा को किसी कारागार में बंद करना, ठीक नहीं होगा, जब कि तुम्हारा जीवन यग्य बाकी है| तुम पिता को भुलाकर, उनके सजाये स्वप्न को याद रखो| उसे पूरा करो, जिसे उन्होंने खुली आँखों से तुमको देखकर सजाया होगा| मैं तुम्हारे साथ हूँ, तुम अपने जीवन के साथ, मेरा भी जीवन सार्थक कर दो|’
पत्नी की बातों को सुनकर, उसकी वे भावनाएँ जो अब तक उसके समक्ष, पिता की स्मृति बन घूमती रहती थी| अब जीवन सत्य बनकर स्पन्दित होने लगा| वह अपने रोम-रोम में उदय और उत्कर्ष का अनुभव करने लगा| उसकी बाल-स्मृतियाँ जीवित हो गईं|
वह पत्नी के गले से लिपट गया, कहा, ‘क्या तुमको विशवास है, कि मुझ-सा पितृविहीन एक अभागा बच्चा, अपने पिता के स्वप्न को पूरा करेगा?’
सुखनी, संतोष नेत्रों से देखकर कही, ‘क्यों नहीं, सौ प्रतिशत!’
माधव, करुण उत्साह से कहा, ‘सच मानो सुखनी, आज मैं तुमको अपने ऊपर किसी सघन वृक्ष की भाँति, छाया डालते अनुभव कर रहा हूँ|’
सुखनी, पति के मनोभाव को समझकर एहसान चुकाती हुई बोली, ‘माधव, झरने का पानी जो डांड़ होकर हमारे खेत में आता था उसे कुछ दबंगों ने मिलकर बंद कर दिया है| हमारे धान के पौधे, पानी के अभाव में सूखते चले जा रहे हैं| दो-चार दिन और ऐसा रहा, तो फसल पूरी तरह नष्ट हो जायगी| हम बर्बाद हो जायेंगे|’
माधव रुआंसा होकर पूछा, ‘तो हमें क्या करना चाहिए?’
सुखनी, माधव की ओर देखकर बोली, ‘हमारे कुएँ में पानी है, क्यों नहीं हम दोनों मिलकर, दश-पाँच घड़े पानी रोज धान के पौधे में डालते रहें, इससे धान मरेगा भी नहीं, और जहाँ इलाके के किसान को एक ग्राम की भी आशा नहीं, वहाँ हम दोनों मिलकर, मन भर तो उपजा ही लेंगे| ऐसे भी घर में कोई काम तो रहता नहीं है, मन भी बहल जायगा, और जीविका भी बच जायगी|’
सुखनी की बात सुनकर, माधव सन्नाटे में आ गया| उसे अपने कानों पर भरोसा नहीं हो रहा था| उसने विस्मय भरी आँखों से सुखनी की ओर देखा, और घड़े लेकर कुआँ की ओर चल दिया| सूखे खेत को पटाना उसने रोज से अपनी दिनचर्या बना लिया|
जब धान पक गया, दोनों पति-पत्नी हँसिया लेकर खेत पर गए और धान काटकर बारी-बारी से घर ले आये| झाड़-फोड़कर तोला, तो पूरे दश मन धान थे| देखकर दोनों की ख़ुशी की सीमा नहीं रही|
माधव, ‘अपने अभिमान में सुखनी की कीर्ति को ज्यादा महत्त्व देते हुए कहा, इसलिए तो मैं प्राणियों के विकास में स्त्री के आसन को पुरुष के आसन से श्रेष्ठ मानता हूँ|’
सुखनी कहकहा मारकर बोली, ‘आप यह भूल जाइए कि नारी श्रेष्ठ है और पूरी जिम्मेदारी उसी पर है| श्रेष्ठ पुरुष है, जिस पर घर का सारा भार है| नारी में सेवा, संयम और कर्तव्य सब कुछ वहीँ से उत्पन्न होता है| अगर इनमें, इन सभी बातों का अभाव है तो नारी में भी अभाव रहेगा|’ इतना बोलकर सुखनी प्रश्न भरे नजरों से माधव की ओर देखी, पूछी, ‘क्या मेरी तकरीर पसंद आई?’
माधव, दबी जवान में उत्तर दिया, कहा, ‘तकरीर तो इतनी पसंद आई कि आज से तुम्हारे नाम का कलमा पढ़ने का मन करने लगा, लेकिन सच मानो सुखनी, तुम्हारी बातों से पिता के प्रति मेरी स्मृति की हालत उस घर के समान हो रही है, जिसमें आग लग गई है, और सब कुछ स्वाहा हो जाने के बाबजूद, मैं वहाँ बैठकर रोने के लिए आश्रय ढूढ़ रहा हूँ| मेरे अनाथ जीवन का प्यास तुम्हारे अपनत्व ने बुझा दिया|’
सुखनी, कृतज्ञता के भाव से कही, ‘यह आपका बडप्पन है|’
माधव, ‘तुम अगर मुझे जीने के लिए प्रोत्साहन न देती रहती, तो मैं पतंगे की तरह अपने मुखदीप पर प्राण दे देता| यह कहते, माधव के चेहरे पर दुस्सह आंतरिक वेदना के चिन्ह दिखाई देने लगे|’
सुखनी समझ गई, विष को योग-क्रियाओं द्वारा निकाला जा सकता है, लेकिन अगर यह मालूम हो, कि धमनियों में रक्त की जगह कोई पिघली हुई धातु दौड़ रही है, तब उसे निकालना नामुमकिन होता है, क्योंकि उसकी दाह दिन-रात शरीर को भष्म करती रहती है| ऐसी हालत में मनुष्य का जीवन तो रहता है, मगर जीवन की अनंत शोभा का अंत हो जाता है|
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