यज्ञ समाप्ति के बाद भी धधक उठती ज्वाला
ऋतु के शाश्वत धागों में बाँधकर
संतान पालना कठिन तपस्या होती है
कौन से वेष में, मेरे संतान का भविष्य
कहाँ मिलेगा, सोचकर स्वप्न और जागृति की
दूरियाँ मिट जाती हैं, देह कृश हो जाता है
मुट्ठी भर अस्थियों का ढाँचा भर रह जाता है
चिंता के विदीर्ण प्राणों में व्रण लिए जीता है
चिंतन कर यह जान , कि मेरे क्षण -क्षन की
चिंता से पुत्र के बहके तकदीर की रेखाएँ
सीधी नहीं होनेवाली, फिर भी अपने अश्रु -
धार से, देवी- देवताओं का चरण धोता रहता है
कहता है देव !पुत्र प्राप्ति का लगन मात्र अनुपम
अबाध उत्सव होता है, पिता हर्ष से विह्वल
विक्षिप्त हो जाता है, लेकिन वह पुत्र इस्
दुनिया में आकर , रुग्न -लाचार जीये, कौन चाहता है
इसलिए मेरे संभावित पुत्र के हिस्से के
दुख -गरल का प्याला, मुझे पिला दो
उसके पीने से मेरा कितना सुख छूट जाता है
तुम नहीं जानते! दूर क्षितिज में बनी उसकी
स्मृतियों की छाया को , देख -देखकर मैं जीता हूँ
कल्पना में बुलाकर् अपनी पुलकित आँखें बंद कर
अपने हृदयसिंघासन पर बिठाकर उसे खेलाता हूँ
उसकी आँखों मेम अश्रु की कल्पना मात्र से
मेरा रोम -रोम भय -कंपित हो उठता है
हृदय कराह उठता है, कलेजा फटने लगता है
लगता है, मेरे प्राणों को कोई बेंधकर लौह -
अंकुश लगाकर , इस ज से दूर ले जा रहा हो
मेरा पुत्र दुनिया में आकर रुग्न -बीमार जीये
इससे तो अच्छा है कि वह अजन्मा ही रहे
भले ही मेरे आनन पर निःपुत्र होने की कालिमा
पुत जाये, मगर अनभ्र पीड़ा से तो यह
अपमान कहीं ज्यादा सुखकर होता है
मगर तप से संयम का संचित बल् तब टूट जाता है
जब आशा के अलकों से, मन का मधु गंध उलझ जाता है
हम जिसे इतना चाहें, हृदय सत्ता का राज्य दे दें, वही
एक दिन बड़ा होकर् इस तप -तुला की व्याख्या करे
तब कर्म -यज्ञ की समाप्ति के बाद भी,धधक उठती हृदय की ज्वाला
जिसमें मनुज अपने ही रुधिर का छींटा मारता
सुगंधित फूलों की जगह् चढाता अस्थि -खंड की माला
लगता यह कहना पूर्णतः गलत होगा कि जब
यौवन के दिन पतझड़ से सूख जायेंगे, तब
अपने कर्म -यज्ञ से जीवन के स्वप्नों को स्वर्ग मिलेगा
मेरे मन के सोये विहग , कलरव कर जाग पड़ेंगे
उस विरल डालियों की शीतल घनी छाया में
मेरी जन्म -जन्मांतर की क्लांति मिट जायेगी
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