यह धुआँ नया नहीं कुछ पहले से
सेवती जो माँ अपने उदर में दश मास तक
दूध पिलाती , अंतर का रक्त फाड़कर
उसके हिय का पत्थर बताकर, घृणा का जो
धुआँ उठा है तुम्हारे सिर से, सदियों से
उठता आया है, नया नहीं कुछ पहले से
कहते हैं संकेतों के आगे, वाणी नहीं होतीं
व्यर्थ होगा गला फाड़कर शोर मचाने से
इसलिए आज तुमको दिखलाती हूँ मैं, वेदना का संसार
कैसे तट तरणी संग करती है छल, कैसे नद हँसता है खल- खलकर
कैसे सुरभि उड़ जाता है, मौन फूलों के उऱ में चिन्हित कर अपनी चाह
कैसे छाया में भी खुल जाता है, दुख के अंत:पुर का द्वार
कैसे उमड़ता रहता है सृष्टि के अंतहीन अम्बर में, घन अंधकार
कैसे चमक- चमककर छिप जाती है विद्युत, जैसे क्षुब्ध हो ताल
बोलो ऐसे में कोई कैसे कर सकता है स्तब्ध गगन को पार
कैसे कोई छू सकता है किरण तुलिका से अंकित,इन्द्रधनुष का सप्तक तार
जो व्योम को जगाता है, वधिर विश्व के कानों में भरता है राग
जीवन जलनिधि के जल में रहता, विपल दुख -दाह
जो कभी किरणों का डोर पकड़कर चढ जाता अम्बर पर
कभी अवतरित होता पतन बनकर, पहनता तिमिर हार
कभी चपल गति,कभी अस्थिर मति बनकर तिरता सागर पर
कभी तड़ित बन गर्जन करता, तब हृदय थाम लेता संसार
आकांक्षाओं से भरी तुम्हारी जीवन- तरी
सदा पंक में धँसी रहती हिल डुल भी नहीं सकती
त्रस्त नयन मुख को ढाँपे रहता,काँपता रहता जीर्ण शरीर
भीतर ज्वाला धधकती रहती सिंधु अनल की
बाहर विकल, मूक बन खड़ा रहता मूक जलधि
मथ रही हैं तुम्हारे हृदय को अनंत जिग्यासाएँ
पर तुम्हीं बताओ, जिस मिट्टी पर तुम खड़े हो
उसके नीचे पृथ्वी के गर्भ में क्या है , ऊपर अम्बर
में क्या छुपा है, क्या तुम बता सकते हो, इसका
उत्तर जगत में नहीं आया, भला तुम क्या बताओगे
फिर भी तुम स्वांग रचकर जताना चाहते हो
कि आकाश- पाताल ही नहीं, जीवन–मरण,भविष्य
तकदीर, सब कुछ तुम्हारी मुट्ठी में बंद पड़े हैं
तुमको देखकर कभी –कभी तो ऐसा लगता है
कि तुम स्वयं को मनुज नहीं , देवता समझते हो
तुम अपनी आँखों पर से मधुमेह की पट्टी को हटाओ
परत – परत बनकर चिपके हुए हैं तुम्हारे गालों पर जो
फूलों का पराग, उसे धोओ,पल भर के लिए मनुज बन जाओ
फिर देखो जग की आँखों से,कि तुम कितने पानी में हो
मेरा कहना मानो , पहले अपने हृदय अंधकार को मिटाओ
नहीं तो सात सूरज की किरणें भी तुम्हारे लिए वृथा होंगी
क्योंकि अंधकार तुम्हारे मन में है, बाहर के लिए तो
एक सूरज काफी है, सात के लिए धरती छोटी पड़ जायेगी
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