Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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यह जीवन का ठौर नहीं

 

यह   जीवन   का   ठौर   नहीं


तुमसे मिलने के पहले,जीवन डाली से लिपटे
जितने भी आशाओं के पत्र नवल थे
सभी एक-एक कर अंतर की ज्वाला में
झुलस-झुलसकर, असमय ही गिरे जा रहे थे
हृदय टहनी के भीतर अकुलाते फ़ूल, जो
अब तक मेरे जीवन वृंत पर नहीं खिले थे
खिलकर बाहर आने को छटपटा रहे थे

हैरान ,परेशान जिंदगी मेरी , धरती के ऊपर
रूह की थकान उतारने वाली संध्या कहाँ
रहती है, उसे ढूँढ़ रही थी, तभी तुम रवि -
किरणों सी , मेरे हृदय कुंज में आयी
तुमको देख मैं चकित, विस्मित हो उठा
सोचने लगा, अरे माटी में विलीन होता
देख मुझे,अपने यौवन का सुधाघट छलकाती
कौन है यह सुंदरी, जो अनायास अनंत से
उतरकर मेरी, हताश जिंदगी में रहने आयी


कामना तरंगों से अधीर मेरा प्राण,जिसे
उन्मत्त भावना की हिलोरें घेरे रहता था
जो मेरे हृदय व्योम में अभिशप्त विहग-सा
चिल्लाया-मड़राया, बदहवास हो फ़िरता था
उसकी दुखती पीड़ा पर,कुसुम घोल चढ़ाकर
तिमिर गर्त की ओर बढ़ते जा रहे उसके
कदम को रोक ली,और बोली दाह्यमान
जीवन में मिलता, जीवन का स्वाद नहीं

इसलिए आँसू रोको,यह जीवन का ठौर नहीं
होती व्यथा भार विहीन, मगर इसे उठाने
का मनुज रग में बहता वह खून नहीं
तुमुल तम हो एकाकार, ऊँघता रहा संसार
में आयेगी बहती मधुऋतु,की गुंजित डाल
झुक जायगी मुझ पर ,देकर यौवन का भार
मृतकों के इस अभिशप्त महीतल पर,जहाँ
सपने खिलकर होते क्षार, छोड़ दो विचार







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