यह प्रेम शब्द तुम्हारा घिस गया
कहाँ से उतर आए तुम फिर से मेरे जीवन में
कैसे स्वप्न भंग हुआ तुम्हारा , यौवनवय में
अब प्रेम –प्रेम मत कहो ,यह प्रेम शब्द तुम्हारा
घिस गया , तुम्हारी जिह्वा के कोमल अंक में
तुम्हारे जाने के बाद मेरे हृदय तल में पड़ा हुआ था
जो मुक्ता कण , आँखों से अश्रु बन निकल गया
जिसकी डाली से बँधे हुए थे, सपनों के घट मेरे
उस अतीत पर अब मैंने पर्दा डाल दिया
तुम तो जमाने के डर से, अग्यात जटिलताओं का
अनुमान कर मुझसे दूर चले गये थे , आज
मेरा भविष्यत् बनकर फिर क्यों मेरे पास आये
क्यों पहेली बने मेरे जीवन को तुम जमाने के
आगे सुलझा लेने का मिथ्या अभिमान किये
क्यों दूर् - दूर तक , मेरे भविष्य के
घन तिमिर को भेदकर देखना चाहते हो
मेरे भाग्य में है और क्या -क्या लिखा
तो सुनो, जो कुछ भी थी , नापने योग्य
मेरे पास, उसे तो तुमने पहले ही माप लिया
अब तुम्हारे गणित के फोर्मूले से,सिद्ध नहीं
होनेवाला, कि नियति ने और क्या-क्या लिखा
कुसुम कलेवर से भींगे तुम्हारे मन से जब मैं
प्रथम - प्रथम बार मिली, आनंद से स्वर काँप
उठा था, कंठ से छंद फूट पड़ा था , मैं सोचने
लगी थी , इस आरती के दीपक को कहाँ सजाऊँ
मन की किस ऊँची तरंग पर इस छवि को बिठाऊँ
दृष्टि मात्र से झंकार भर गई थी मेरे हृदय में
लगा तुमने अपनी अमृत से मुझको सींच दिया
मेरे मरण को,मेरी जिंदगी से कुछ दूर और भगा दिया
विकल यौवन , निद्राहीन जागकर रातों में लिखता था
तुम्हारा नाम तकिये पर, कहती थी यह प्राण है मेरा
मगर अचानक तुमने मेरे अधरों की हँसी को
चूर्ण् -चूर्णकर राशि -राशि में बिखरा दिया
घेरकर मेरे निखिल हृदय की भूमि को
भीम गर्जन से गरज -गरज कर दहला दिया
नदिया एक दिन बूँद को स्नेह वश सिक्ता बना
देती है,तुमने तो इस उक्ति को भी झुठला दिया
मैं तो तुम्हारे बिना मुसकुराना भी सीख गई थी
ईश्वर का वरदान समझकर सब कुछ भूल गई थी
तुमने मिथ्या क्यों कहा,तुम्हारी चितवन का वह कुसुम
दुग्ध सा,मधु प्रवाह् मेरे मन को प्लावितकर खींच लाया
आज भी अस्तांचल में देखती हूँ, ढलते रवि को
विभावरी में चित्रित होते शशि छवि को, तो
बीते दिनों की याद ताजी हो जाती है, पलकें
मुँद जाती है , नयन जल ढल जाते हैं. शयन
शिथिल बाँहों में स्वप्निल आवेश भर जाते हैं
अब मत कहो कि विकल राका की मूर्ति बन
मैं रहती हूँ क्यों स्तब्ध, मौन
मेरे हृदय का राजस्व अपहृत कर, मत
पूछो कि मैं तुम्हारी लगती हूँ कौन
क्षणिक अवसाद के लिए छोड़ दो अब तुम
अपनी इस तरल आकांक्षा को , रहने दो गौन
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY