मनुजसोचता , हवा में जो झूल रहा स्वर्ग
जलद जालमें उलझरहेकुंतल - सा
जीवन का ताप मिटाने कब उतरेगा,धरती पर
कब टूटेगी वहाँ के सुधा सागरकी बाँध
कब सूखे नयन भींगेंगे ,कब होगी वेदना कम
यहाँ एक कण भी नहींसजल आशा का
यहाँ न तो अरमानों को रोशनीमिलती
न ही इच्छाओं को मिलता, जीवन का रंग
झंझा प्रवाह से निकला यह जीवन , विक्षुब्ध
विकल, परमाणु का पुंज लेकर आया अपने संग
जो जीवनको सदैव भयभीतकियेरहता
बनाने नहीं देता कोमल लतिकाओंका कुंज
कहता ज्वलनशील , मानवकाअंतर कब
विस्फोटकर राख में बदल जायेगा, कब
साँसों की गति रुक जायेगी, कब हो जायेगी रुद्ध
कोई नहीं जानता, इसलिए अमरता के लोभवश
जिस शून्य को तुम कह रहे हो स्वर्ग ,वहाँ केवल
काल की निस्सीमता की साँस है,बाकी बातें व्यर्थ
नियति केहाथॉं यहाँ जीवन सभी छले गए
क्या राजा, क्या भिखारी, क्या साधु ,क्या संत
कोलाहल भरे इसधरा काक्या हैरहस्य
पहले भी मनुष्य साध चुका है इस कलायोग को
मगरक्यामिला,सभीअपनेहीहृदय-जलमेंडूबगए
ज्यों दल-दल में फंस जाता मत्त गज
यहाँ गम के नीचेदबीजिंदगी, स्वप्नों के
शिखरों से उठकर , आकांक्षाओं के भुवनॉंपर
रंग़ –विरंगेउड़तेसूक्ष्मसुषमाओं की, आभा
के हरित पट से प्राण -सिंधुको सजाता
तर्कसे तर्कों का रण छेड़कर , ज्ञानमरु में
भटक-भटककर वारि बिना दम तोड़ देता
पर किसी ने मौत की छाती से जीवन को निकाल
नहीं पाया, अपनी ही पुतली से प्राण बाँधे चले गए
ऐसे भी तुम्हारी आत्मा जबतुम्हारे हृदय का साथ
छोड़देगीतब , मन की वेकली स्वयं चली जायेगी
अमरता से लगी आशा की, तुनुक स्वयं टूट जायेगी
इसलिए जीवन रहस्य को जानने की कल्पना त्यागो
यह नियति का कामहै , नियति पर छोड़ो
Dr. Srimati Tara Singh
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