सदियों तक कहानियाँ ,धर्म के अक्षयवट और राजदरवार के कल्पवृक्ष की छाया में पलती- बढ़ती रही ; लेकिन मानव समस्याओं के उथल-पुथल के परिवर्तन के कोलाहल में कहानियाँ,जब मुकुट और तिलक से उतरकर आम-आदमी के हृदय का अतिथि सदियों तक कहानियाँ ,धर्म के अक्षयवट और राजदरवार के कल्पवृक्ष की छाया में पलती- बढ़ती रहीं ; लेकिन मानव समस्याओं के उथल-पुथल के परिवर्तन के कोलाहल में कहानियाँ,जब मुकुट और तिलक से उतरकर आम-आदमी के हृदय का अतिथि बनीं, तब रचनाकारों की आँखें , अमीरों के हीरे-मोती की चमक से चौंधियाने से बचीं । अब तो दर्पण की छाया की भाँति पूरी तरह दूर ही रहने लगी ; डॉ० सिंह का उपन्यास, ’जिंदगी, बेवफ़ा मैं नहीं’, दरअसल यह एक मध्य वर्गीय समाज के सुख— और दुखात्मक संवेदनाओं का सच्चा दर्पण है । इसके उर्वर आँगन में पुरातन रूढ़ि-रीतियों तथा आज की सामाजिक व्यवस्था को अपनी कोरी भावुकता से बचाकर सहानुभूतिपूर्वक संवेदनाओं का सच्चा दर्पण है । इसके उर्वर आँगन में पुरातन रूढ़ि-रीतियों तथा आज की सामाजिक व्यवस्था को अपनी कोरी भावुकता से बचाकर सहानुभूतिपूर्वक मान्यताओं के प्रकाश में संवारा है । इसमें लोग जीवन के जातिवाद तथा ऊँच-नीच के कलुष-पंक को धोने के लिए नव मानव की अंतर-पुकार है ,तो अन्त:करण को संगठित करने वाला मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार जैसे अवयवों का सामंजस्य भी है । जिसके कारण हम कह सकते हैं कि यह उपन्यास ( जिंदगी, बेवफ़ा मैं नहीं ) सौन्दर्यबोध तथा भाव –ऐश्वर्य की दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट और चमत्कारिक सृजन है । इसे पढ़ते बख़्त सदियों तक कहानियाँ ,धर्म के अक्षयवट और राजदरवार के कल्पवृक्ष की छाया में पलती- बढ़ती रही ; लेकिन मानव समस्याओं के उथल-पुथल के परिवर्तन के कोलाहल में कहानियाँ,जब मुकुट और तिलक से उतरकर आम-आदमी के हृदय की अतिथि बनीं, तब रचनाकारों की आँखें , अमीरों के हीरे-मोती की चमक से चौंधियाने से बचीं । अब तो दर्पण की छाया की भाँति पूरी तरह दूर ही रहने लगी ; संवेदनाओं का सच्चा दर्पण है । इसके उर्वर आँगन में पुरातन रूढ़ि-रीतियों तथा आज की सामाजिक व्यवस्था को अपनी कोरी भावुकता से बचाकर सहानुभूतिपूर्वक मान्यताओं के प्रकाश में संवारा है । इसमें लोग जीवन के जातिवाद तथा ऊँच-नीच के कलुष-पंक को धोने के लिए नव मानव की अंतर-पुकार है ,तो अन्त:करण को संगठित करने वाला मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार जैसे अवयवों का सामंजस्य भी है । जिसके कारण हम कह सकते हैं कि यह उपन्यास ( जिंदगी, बेवफ़ा मैं नहीं ) सौन्दर्यबोध तथा भाव –ऐश्वर्य की दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट और चमत्कारिक सृजन है । इसे पढ़ते बख़्त सदियों तक कहानियाँ ,धर्म के अक्षयवट और राजदरवार के कल्पवृक्ष की छाया में पलती- बढ़ती रही ; लेकिन मानव समस्याओं के उथल-पुथल के परिवर्तन के कोलाहल में कहानियाँ,जब मुकुट और तिलक से उतरकर आम-आदमी के हृदय की अतिथि बनीं, तब रचनाकारों की आँखें , अमीरों के हीरे-मोती की चमक से चौंधियाने से बचीं । अब तो दर्पण की छाया की भाँति पूरी तरह दूर ही रहने लगी ; डॉ० सिंह का उपन्यास, ’जिंदगी, बेवफ़ा मैं नहीं’, दरअसल यह एक मध्य वर्गीय समाज के सुख— और दुखात्मक संवेदनाओं का सच्चा दर्पण है । इसके उर्वर आँगन में पुरातन रूढ़ि-रीतियों तथा आज की सामाजिक व्यवस्था को अपनी कोरी भावुकता से बचाकर सहानुभूतिपूर्वक मान्यताओं के प्रकाश में संवारा है । इसमें लोग जीवन के जातिवाद तथा ऊँच-नीच के कलुष-पंक को धोने के लिए नव मानव की अंतर-पुकार है ,तो अन्त:करण को संगठित करने वाला मन, चित्त, बुद्धि और अहंकार जैसे अवयवों का सामंजस्य भी है । जिसके कारण हम कह सकते हैं कि यह उपन्यास ( जिंदगी, बेवफ़ा मैं नहीं ) सौन्दर्यबोध तथा भाव –ऐश्वर्य की दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट और चमत्कारिक सृजन है । इसे पढ़ते बख़्त हर चरित्र ,सजीव हो उठता है । धर्म, नीति, दर्शन आदि सिद्धांतों से परिपूर्ण किरदारों के आपसी संवाद कानों में घुलने लगते हैं ।
तारा जी की कविता हो या गज़ल, कहानी, अथवा उपन्यास ; घटना-मात्र का वर्णन करने के लिए नहीं होते, बल्कि ये किसी न किसी प्रेरणा अथवा अनुभव पर आधारित होते हैं । यही कारण है कि जब तक कहानी या उपन्यास लिखने के लिए कोई आधार नहीं मिल जाता, इनकी कलम नहीं उठती । आधार मिलने के बाद , सब से अनुकूल चरित्र के लिए पात्रों का निर्माण करती हैं; फ़िर अपनी कल्पना को नव-नव उपमाओं द्वारा उसे सजीव रूप प्रदान करने के लिए पंख देती हैं, जिसमें पूर्णरूपेण सक्षम भी हुई हैं । माना जाता है , एक सच्चे कलाकार या लेखक की अनुभूति केवल प्रत्यक्ष-सत्य नहीं होती, बल्कि अप्रत्यक्ष-सत्य का भी स्पर्श करती है । उसका स्वप्न वर्तमान ही नहीं, अनागत को भी अपने शब्दजाल में बाँधता है, और उसकी भावना यथार्थ ही नहीं, सम्भाव्य यथार्थ को भी अपनी शब्द-शैली से मूर्तिमती देती है । केवल जीवन-यथार्थ के कुत्सित पक्ष को जमाकर , जीवन एक नरक है, इसे लेखिका पूरी तरह खारिज करती हुई सुख-पक्ष को भी पुंजीभूत करने का भी सफ़ल प्रयास की है । कहानी के प्रमुख पात्र, अजय और निशा का प्रथम मिलन या फ़िर नन्हीं बनिता का जन्म लेना आदि , ऐसे दृश्य भी आते हैं , जिनमें जीवन स्वर्ग से भी सुंदर प्रतीत होने लगता है ।
दादी और निशा ,के अटूट प्रेम के माध्यम से , केवल जीवन को आदान-मात्र ही मनुष्य को सम्पूर्ण सन्तोष नहीं देता, बल्कि उसे प्रदान का भी मौका मिलना जरूरी होता है । इस प्रकार अपनी हर
साँस को दीये की भँति ,सरस्वती के मंदिर में जलाने वाली डॉ० तारा का यह उपन्यास,’ जिंदगी, बेवफ़ा मैं नहीं’ , निखिल मानव समाज के लिए भावनात्मक बोध लिये होने के कारण , साहित्य की कसौटी पर मेरी समझ से सर्वश्रेष्ठ है । इसके हर चरित्र , दादी, निशा, अजय, नीतू ,सब के सब अपने नैतिक अनुशासन से बँधे हुए हैं । भावना का उतार-चढ़ाव या थमाव, अत्यन्त सजग और मंथर है । कहीं भी प्रेम भावना उच्छृंखल या जड़ या आवेशपूर्ण अथवा स्वार्थजनित नहीं है । ऐसा महसूस होता है कि कहानी का हर चरित्र , लेखिका की अंतर-आत्मा से परिचित है ।
एक कुशल स्वर्णकार की भाँति प्रत्येक दृश्य को समय, काल और परिस्थिति के अनुरूप नाप-तौलकर और काट-छाँटकर , कुछ नये गढ़कर लेखिका ने अपनी सूक्ष्म भावनाओं में कोमलतम कलेवर दिया है । भावजगत के कोने-कोने तथा सौंदर्यजगत चेतना के अणु-अणु से परिचित डॉ० तारा, भावजगत की वेदना और गहराई तथा जीवनक्रिया को मानवता के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुँचाने में बिल्कुल सक्षम हुई हैं । अंत में, आप पाठकों से मेरा इतना अनुरोध है कि इस समीक्षा के रूप में प्रस्तुत अपने विचारों, विश्वासों तथा जीवन मान्यताओं की त्रुटियों एवं कमियों के सम्बंध में अगर कहीं कोई भूल धारणा दिखे, तो मैं क्षमाप्रार्थी हूँ ।
समीक्षक
डॉ० प्रदीप कुमार सिंह देव |
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