Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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आत्मा संग रिश्ते भी मैले हो गये

 

             आत्मा संग रिश्ते भी मैले हो गये 


रक्तस्नात धरती पर, अमृत ज्योति की बरखा सी

विधु की कोमल रश्मि, तारकों की पवित्र आशा सी

सुभग रेशमी कोमल होता,अपनों से दिल का रिश्ता 

जन्मों-जन्मों तक मानव की मृदु शिराओं में 

सूक्ष्म रुधिर की धार पर अविरल बहता रहता 

जिसके स्नेह-स्पर्श से इन्द्रियों में कंपन होता रहता 

जीवन के ऐश्वर्य-हर्ष से उर नर्तन करता रहता 



जीवन के पथ से हारकर, व्यथित मानव जब रोता 

खोल वंश के अवगुंठन को, रिश्ता बाहर निकल जाता 

स्नेह सुरभि पंखुरियों के दल से, सहला-सहलाकर 

स्निग्ध दृष्टि के स्पर्श कर से, फूलों को चुन लेता 

कहता,सूखे किनारे के कटीले बाहुओं से डर गए तुम

तो वृद्ध तरुओं की आँखों से गिर रहे आँसू समान  

जीर्ण-शीर्ण पीले पत्तों को देखकर, कैसे जीओगे तुम



रिश्ते की चन्द्र-मल्लिका को स्वर्ण गमले में खिला देख 

शैयाग्रस्त मानव भी, उल्लसित हो प्रफुल्लित हो उठता 

सोचता, जिस पर धरकर शीश मैं रातों को सोता 

जिसकी ठोस मिटटी पर मैं पाँव जमाकर खड़ा रहता 

जिससे लिपटकर जीवन की ज्वाला, उद्दीपन करती है शीतलता 

जिसे समझता था मैं रेशम का तकिया, वही तो है यह गुलदस्ता  



मगर धीरे-धीरे जमाने की लहरों की चपल चाल संग 

चलते-चलते स्वार्थ की धूसर छाया में, उठते-बैठते 

मनुज मन की आत्मा संग, रिश्ते भी हो गए मैले 

अब इसकी छाँह में पहले सी शीतलता नहीं रही 

ज्योत्सना में झंझा से कंपित होकर गिरती थी 

जो हलकी फुहारें, मनुज स्मृति को भिंगोने नहीं रही

मन उरोजों से उभरे, इस एकांत मौन भीटे पर 

अब रिश्ते के मीठे फलों का तरु नहीं उगता 



मनु ने अपनी श्रद्धा को ह्रदय कक्ष से निकालकर 

धीरे-धीरे शयन-कक्ष में ले जाकर सुला दिया 

ताकि उसके ह्रदय आभार के स्वार्थ जल को 

हिलकोर सके ना, उसके अंतर्मन की प्रतिध्वनि

चित्त के छिपे प्रकाश को, ढूंढकर ला सके ना फिर कभी 

पर अज्ञात मनुज यह नहीं जानता, प्रीति श्वास से 

समुच्छ्वासित होकर, जीवन की आकांक्षाएँ कल-कलकर बहतीं 

इसके बिना असंभव है, देवों की ऐश्वर्य अतुल शोभा 

सुन्दरता,आनंद , अलौकिक स्वर्ग का अनुभव करना 

जब तलक अंतर्मन का प्रभात नहीं होगा, तब तलक 

स्वार्थ,लोभ के पीने पंजोंवाला पशु, मानव का मुख 

नोचता रहेगा , मुश्किल होगा इसे स्वयं से दूर रखना 



कभी रिश्ते की सेवाकर मनुज मुक्ति नहीं माँगता था 

भक्ति का वर, और रिश्ते के चरणों में कर देता था 

करोड़ों शिव, हजारों विष्णु पूजन को निछावर 

रिश्ते की तृप्ति पर बलि हो मेरा यह शरीर 

कामना रहे तो बस यही, खिला रहे भक्ति का फूल  

काँपती उँगलियाँ बिगाड़ देतीं रिश्तों की तसवीर

इसलिए वायु के झकोरे से ज्यों झुक जाता कुसुम 

वैसे ही चुका रहे रिश्तों के चरणों में मेरा यह शीश 



प्रेमपूर्ण ह्रदय से निखिल धरा की सौन्दर्यता है शासित 

अपनों के स्नेह समक्ष,  जीवन सौन्दर्य सदा रहा पराजित 

मानव जीवन का उपवन, श्री-शोभा का दर्पण सा लगे 

जिसमें अपनों की छाया की काया, सदा चित्रित रहे 

इसलिए तो विधु ने इस मटमैली पृथ्वी पर, रवि- 

किरणों से मनमोहक सतरंगा रंग माँगकर बिछा दी

और रजत प्रीति के उन आईनों पर स्वर्ण शिराएँ वेष्ठित कर दी   

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