बसंत
सर्द हवा के झोंके से हो आतंकित
दूर क्षितिज में, तरुमाला के ऊपर
चाँदी की रेख सी लहराने वाली पाँखी
शिला कंदराओं में आश्रय को ढूँढ़ रही
भटक रही बगुले की पाँति को देख
क्षितिज को फ़ाड़, प्रकृति के शृंगार
कक्ष से, रंगों का शत घट लेकर
धरा पर छलकाने उतर आया बसंत
सोचा, निश्चय ही , सृष्टि से जगत को
जोड़ने वाला सुख- तार, हिम आतप के
उछल- कूद में टूट बिखर गया है धरा पर
तभी प्रात: का विहग गान आता नहीं ऊपर
मलय - पवन , कली , तगर - गंध सभी
शांत, उदास छाया से मौन पड़े हैं
हँसता नहीं कहीं प्राणों की हरियाली का मर्मर
वनश्री स्मृति का पट-पीत समेटे रो रही
मनुज उर के सुख, सौरभ से उड़े जा रहे
मूक पड़े हैं प्रीति मधुरिमा ,सुषमा के स्वर
लगता प्रकृति का भू-निर्माण काल फ़िर से
चल रहा डूबी जा रही सकल व्यवस्था
परिवर्तन के क्रम में सब हो जा रहे जर्जर
ऐसे में कहीं मनुज का मन
जग – जीवन से विरत न जाये
बिखर न जाये इधर - उधर
हमें वर्तमान को आक्रमण कर उसमें
सुरभि चेतना सुख को भरना होगा
तभी ज्योति जड़ित किरणों संग मनुज
आँख – मिचौनी खेल सकेगा जी भर
यही सोच ऋतुपति वसंत,आद्र जलद का
वस्त्र फ़ेंककर ,स्वर्गिक शिखरों का वैभव
लेकर आनंद उच्छलित प्रकृति का
शक्ति-स्रोत बनकर, धरा पर उतर आया
चारो तरफ़ फ़ूलों के रस का मृदु फ़ेन
बिछने लगा, जीवन गति, भू रज से
लोट – लिपट झर -झरकर बहने लगा
प्रकृति कुंज सी वसुधा गई निखर
पल्लव – पल्लव में नवल रुधिर भर गया
झर- झरकर पीले पत्ते, डाली से गये उतर
शिशु हंस कभी हवा में महल बनाकर
कभी धरा स्वर्ग की सेतु बन,आसमां में लहराने लगा
मधुमरंद से रंजित भू का गर्भ फ़िर से हुआ उर्वर
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