एक कहावत है,’खाली घर भूत का डेरा’, अर्थात चुपचाप,बिना काम के बैठे रहना अर्थात निकम्मापन मन को बुरे विचारों से उद्वेलित करता है । दूसरी तरह हम यह भी कह सकते हैं कि काम कर पाने में समर्थ और योग्य व्यक्ति के लिए बेकारी सबसे बड़ा अभिशाप है ; यह अपने आप में जीवन- हीनता की समस्या बन जाती है । अपने भविष्य को दिश न दे पाने कारण, खुद के लिए ही नहीं,समाज के लिए भी समस्यात्मक चुनौती उत्पन्न करती है, ग्यान-विग्यान की बातें, नई टेकनोलोजी इत्यादि, सभी, अस्वाभाविक लगने लगता है । उनके आचार –व्यवहार की पवित्रता का संतुलन बिगड़ने लगता है ।आर्थिक अभाव से जूझते-जूझते खुद में और पशु में अंतर नहीं कर पाता । प्रवृतियों और इच्छाओं का दास बनकर पथभ्रष्ट हो जाता है और जब मन भ्रष्ट हो जाता है, तब तन का भ्रष्ट होना स्वाभाविक हो जाता है ।
स्वतंत्र भारत में बेकारी की समस्या,शैतान की आँत की तरह बढ़ती जा रही है । विचारकों ने इनके अनेक कारण दिये ; लेकिन प्रमुख कारण है,आबादी का बेतहाशा बढ़ते जाना । जब हमारा देश आजाद हुआ, यहाँ की जनसंख्या 33 करोड़ थी ,लेकिन अभी , 120 करोड़, अर्थात चार गुना ज्यादा । जनसंख्या जितनी जोर-शोर से बढ़ती जा रही है, उस तुलना में रोजगार के साधन नहीं बढ़ पाते हैं और न ही बढ़ने की आशा है । ऐसी हालत में युवक करे तो क्या करे, सिवा अपने सिर के बाल नोचने के ।
बेकारी का एक और बहुत बड़ा कारण है, परम्परागत घरेलू काम-धंधे को छोड़कर कल-कारखाने में नौकरी की इच्छा;जिसका परिणाम हो रहा है कि आज परम्परागत गृह- उद्योग खत्म होने लगे हैं । इसलिए शिक्षा ऐसी होनी चाहिये, जो व्यक्ति के मन में मात्र बाबूगिरि के काम की प्रेरणा ही नहीं; बल्कि कर्मठ औरसुखी जीवन-यापन की प्रेरणा मिले । सरकार की गलत औद्योगिक नीति और योजना भी बेकारी समस्या बढ़ा रही है । बड़े-बड़े उद्यो्गों के सामने छोटे कुटीर उद्योगों की तरफ़ ध्यान नहीं दिया जाता । छोटे धंधे से जुड़े लोग ,सामान्य शिक्षा प्राप्त नवयुवक लड़के, घरेलू कारीगर आदि धीरे-धीरे बेकारी की पंक्ति में आ खड़े हो गये । गाँव के किसान,जिसका मकसद था खेती द्वारा अन्न उपजाना; अपना और देश वासियों का पेट पालना ; आज वे खेती-बाड़ी को छोड़कर , शहरों में नौकरी की तलाश में भटक रहे हैं । परिणाम स्वरूप यह समस्या ,विकट से विकटतम की ओर बढ़ती चली जा रही है । यहीं तक, यह समस्या सीमित नहीं रही, अब तो बेकारी, सामाजिक समस्याओं को भी जनम देने लगी है । बेकार युवक चिड़चिड़ा,हिंसक और उद्दंड होते जा रहे हैं । इच्छाओं और जरूरी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अनैतिक मार्ग पर चलने से भी परहेज़ नहीं करते हैं । मेरी समझ से लूट-पाट, हत्या, छीना-झपटी, आदि बेकारी का ही एक हिस्सा है ।
अब प्रश्न यह उठता है, कि बेकारी के इस भूत से छुटकारा कैसे पाया जा सकता है । इसके लिए ,सबसे पहले बढ़ती जनसंख्या के सैलाब को रोकना होगा । बिना इस पर नियंत्रण किये, किसी भी प्रकार की नीति सफ़ल नहीं होगी, कारण जो नीतियाँ/ योजनाएँ, आज 120 करोड़ के लिए बनती हैं; इनके लागू होते-होते जनसंख्या, 20 करोड़ और बढ़ जाती है । ऐसी हालत में कोई भी योजना सफ़ल नहीं हो सकती--- इच्छाओं का विस्तार भी बेकारी का एक कारण है , जो मानवता के अर्थ तथा मानव-मूल्यों तक को व्यर्थ कर देता है । जब तक सरकार छोटे-छोटे कुटीर –उद्योगों को फ़लने-फ़ूलने में आर्थिक मदद से दूर रखेगी , बेकारी की आग फ़ैलती जायगी । साथ ही परम्परागत धंधों को उचित संरक्षण और सम्मान नहीं मिला तो ,बेकारी बनी रहेगी; उन्हें यह भी समझना होगा,कि कोई भी काम ओछा नहीं होता । काम ,काम है और पूजा भी ।
अक्षर और साहित्य ग्यान के साथ-साथ, विद्यार्थियों को औद्योगिक ग्यान की भी शिक्षा देनी चाहिये । भारत की तत्काल शिक्षा –पद्धति जैसी है, उससे उँची-ऊँची डिग्रियाँ तो मिलती हैं ,लेकिन पेट भरने के लिए रोटियाँ नहीं मिलतीं । इसलिए यह आवश्यक है कि गाँव के धंधे, खेती और व्यापार के साथ ,शिक्षा का भी मेल बना रहे । प्रारंभिक एवं माध्यमिक अवस्थाओं में भी, विद्यार्थियों को उनके अपने घरेलू धंधे से वे अलग न हों, इसका ख्याल रखना चाहिये । प्रत्येक नागरिक का यह हक बनता है कि उन्हें दो जून की रोटी के साथ रहने का एक घर ,और तन ढ़ँकने के लिए वस्त्र उपलब्ध हो ।
कोई भी राष्ट्र केवल सकल उत्पाद के बल पर जीवित नहीं रह सकता, बल्कि दूसरे देशों से आयात और निर्यात,दोनों जरूरी है । जब तक हमारे अपने सामानों को बाहरी देशों का बाजार नहीं मिलेगा, हम मुनाफ़े का कारोबार नहीं कर सकेंगे । घाटे का उद्योग कोई नहीं चला सकता और इस काम के लिए सरकार की इच्छा-शक्ति की मजबूती के साथ –साथ विश्व बाजार पर अपनी पैनी नजर भी रखनी होगी । केवल नारों से बेकारी की समस्या हल नहीं हो सकती । प्रगतिशील राजनीति का मुखौटा पहने,मूढ़ विचारधारा इसका हल नहीं निकाल सकती । इसके लिए वास्तविक तथा व्यवहारिक फ़लमूलक आर्थिक नीतियाँ होनी चाहिये । तभी जनता की आस्था और लगन के उद्यम भंडार का सदुपयोग हो सकेगा और बेरोजगारी का सर्प, जो फ़न फ़ैलाये हमारे युवावर्ग का सर्वनाश कर रहा है ,खतम किया जा सकेगा ।
आज भारतीय रोजगार कार्यालय में हजारों में नहीं, लाखों में बेरोजगार के नाम दर्ज हैं । आँकड़ों की मानें तो 2008 में भारत में बेरोजगारी की दर 6.8% थी ; विशेषग्यों की मानें,तो अगर बेरोजगारी की यही हाल रही तो 2021 तक यह आँकड़ा 30% तक पहुँच जायगा । 2007 में नेशनल कमीशन फ़ार एन्टरप्राइजेज इन द अनओर्गेनाइज्द सेक्टर्स द्वारा प्रचारित रिपोर्ट के अनुसार भारत में 7.7% लोग 20 रुपये प्रतिदिन से कम में गुजारा करते हैं । इसलिए सरकार की नीति और नियम में जब तक ईमानदारी नहीं आयेगी ,तब तक इस बेरोजगारी को खतम करना, मुश्किल ही नहीं, नामुमकीन है ।
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