एक तरफ़ फ़ाल्गुनी पूर्णिमा का चाँद, धरती की शुभ्र छाती पर रात आलोक धारा का सृजन कर रहा था; दूसरी तरफ़ सुरेन्द्र की बेटी माला, एक नई दुनिया बसाने, एक नये साथी के साथ पिता के घर से मानिकपुर गाँव के लिए विदा हो रही थी। पूरा गाँव उल्लसित था, मगर तीन महीने भी नहीं बीते, उसके हाथों की मेहंदी का रंग फ़ीका भी नहीं पड़ा, कि भाग्य के विशृंखल पवन ने, उसके पति को अचानक अपने साथ उड़ा ले गया। माला, जिसकी पलकों के छज्जे और बरौनियों के चिकों पर पति के प्यार का गुलाल पूरी तरह निखर भी न पाया था, वह विधवा हो गई। उसके माँग की सिंदूर धो दी गई; हाथों की चूड़ियाँ तोड़ दी गईं। इस बुरी खबर को पाकर सुरेन्द्र, शीत की लहर में पल्लव की तरह काँप उठा। कहीं विलम्ब रूपी वायु माला को भी न उड़ा ले जाये, सोचकर सुरेन्द्र दौड़ता-दौड़ता माला के ससुराल पहुँचा।
वहाँ पहुँचकर देखा, माला एक मैली–कुचैली सादी धोती में लिपटी, घर के कोने में छत की ओर टकटकी लगाये बैठी है और सास उसके ऊपर क्रोधाग्नि की बारिस कर रही है, कह रही है---- पापिन तुझे खाने के लिए कुछ नहीं मिला, जो तू मेरे बेटे को ही निगल गई। निकल जा मेरे घर से, जा किसी नदी-नाले में जाकर डूब मर, तेरा चेहरा देखना पाप है। तू कुलक्षणी है, तू डाइन है, और न जाने क्या-क्या वह बकी जा रही थी। सुरेन्द्र कुछ देर तक खड़ा सुनता रहा, लेकिन जब उसकी सहनशक्ति हार गई, तब चिल्ला पड़ा---- बस, समधन बस, अब और नहीं। अरे! वह तो पहले से मरी हुई है, अब क्या मरेगी? फ़िर विलखता हुआ बोला---- मैं आपके दुख को समझता हूँ, लेकिन जरा सोचिये। इस पर क्या बीत रहा होगा, इसका भूत, वर्तमान, भविष्य; तीनों खो गया। जरा इस पर भी तरस खाइये। आप एक माँ हैं, और माँ ममता की सागर होती है, दया कर इस अभागिन को चुल्लू भर अपनी ममता दे दीजिये। इस कदर जलील न कीजिये। ऐसे भी जामाई के चले जाने में इसका दोष क्या है, वे तो हार्ट-अटैक में चले गये। यहाँ तो हम सभी के भाग्य का दोष है।
सुरेन्द्र रोते हुए दोनों हाथ जोड़कर ऊपर की तरफ़ मुँह उठाकर कहता है---- हे अनंत ज्वालामुखी सृष्टि के कर्त्ता! तुम करूणानिधान हो, आशा और आर्त्तनादों के आचार्य हो, दीनानाथ हो। क्या तुमको एक फ़ूल सी बच्ची पर इतना गहरा कठोराघात करते जरा भी तरस न आई और इतनी बड़ी वेदना का जाल इसके चारो ओर फ़ैला दिया, जिसमें जनम-जनम तक उलझकर कराहती रहे। एक अनुभवशील मस्तिष्क की इतनी कठोर कल्पना; तुम्हारी इस कठोर कल्पना को मैं धिक्कारता हूँ। यह कहते हुए सुरेन्द्र के शीर्ण शरीर पर कांति आ गई। वह हँसा और फ़िर वहीं गिरकर अचेत हो गया। कुछ देर बाद जब उसकी चेतना लौटी, देखा---- माला की सास जा चुकी है, लेकिन माला अभी भी पूर्ववत अवस्था में बैठी रो रही है। वह वहीं धरती पर पड़ा-पड़ा चिल्ला पड़ा---- बेटी माला! मुझे उठने में मदद करो। माला लँगड़ाती, कपड़े संभालती, पिता के पास आई और बोली---- पिताजी! मेरी भलाई अगर आप चाहते हैं तो, यहाँ के किसी सदस्य से आप कुछ नहीं बोलेंगे क्योंकि ये लोग जैसे भी हैं, मेरे आश्रयदाता हैं। मेरा जीवन इन्हीं के घर के खूँटे से बँधा हुआ है। इसके सिवा मेरा कोई ठौर नहीं है; आपकी एक-एक बात, मेरे दुख की खाई को और गहरी करेगी। यही कठोर सत्य है पापा, कि आप चुप रहें। सुरेन्द्र माला की बातों से खिन्न होकर कहा---- देखा तुमने; जो खुद उठकर सीधी खड़ी तक नहीं हो पाती, उसका इतना इतराना ठीक नहीं, जब कहती, ’तुझे देखना मेरे लिए पाप है’, तब मेरा कलेजा कटने लगता है।
सुरेन्द्र अपनी जिग्यासा का स्पष्ट उत्तर, माला की ओर से न पाकर अपने ही भावों के तमिस्र में खो गया। पिता का इस प्रकार चुप हो जाना देखकर,माला डर गई और पिता को उठने में सहारा देती हुई बोली---- पिता जी! आगे मेरे लिए क्या आग्या है?
सुरेन्द्र कुछ बोल पाता, माला की सास आ गई, बोली---- आग्या यही है कि तू अभी के अभी मेरी आँखों से दूर चली जा, तुझे देखकर मेरे हृदय में जलन होती है। अगर यह जलन नहीं गया, तो मैं विष पी लूँगी; मैं कभी भी रिश्ते को अपनी आत्मा का जंजीर नहीं बनने दूँगी।
यह सब देखकर, सुरेन्द्र ने माला से करुण स्वर में कहा--- बेटी, तुम्हारे सास की क्रोधाग्नि, तुमको झुलसाकर खाक कर देगी। इसलिए अब यहाँ से चले चलो। माला, पिता की बातों को सुनकर कुछ देर तक मर्माहत सी बैठी रही, फ़िर एकाएक उठी और पिता के साथ घर से निकल गई।
माला को, ससुराल छोड़े चार साल हो गये, लेकिन इस बीच वहाँ से कोई मिलने तक नहीं आया। बेटी के भविष्य की चिंता में सुरेन्द्र घुल-घुलकर आधा हो गया। दिन गुजरने के साथ-साथ दुख और बड़ा होता चला गया, लेकिन पहले जहाँ माला को रोता देख उसकी आँखें सजल हो जाती थीं, अब उसे उदास और शोकमग्न देखकर झुँझलाने लगा, कहता---- बेटी! जिंदगी रोने के लिए नहीं बनी है, इसे जीना सीखो। पिता की बात पर माला भौचक्की रह जाती; सोचती---- पिता होकर ऐसे शब्द मुँह से कैसे निकालते हैं?
एक दिन सुरेन्द्र ने देखा, आकाश में कलरव करते, पंक्ति बाँधकर घर की तरफ़ लौट रहे विहंगों को देखकर, माला मुस्कुरा रही है। वह समझ गया, माला के हृदय–कानन में प्रीति की हरियाली फ़िर से फ़ैलना आरम्भ कर रही है। माला का कल्पित स्वर्ग धीरे-धीरे मूर्त्त रूप को ग्रहण करना चाह रहा है। वह विह्वल होकर, माला के पास गया, पूछा--- बेटी, क्या देख रही हो?
माला कुछ कहती, सुरेन्द्र बोल उठा---- ये सभी लोग अपने घर लौट रहे हैं।
माला, तीव्र दृष्टि से पिता की ओर देखी और अधिकार पूर्ण बोली---- जिसका घर आँधी में उजड़ गया हो, वह कहाँ जायगा?
सुरेन्द्र ने एक अपराधी सा उत्तर दिया---- वह एक दूसरा घर बाँधेगा, क्योंकि दुख रूपी गर्मी और बरसात से लड़ने के लिए आदमी को पहले एक घर चाहिये।
तभी किसी ने आकर सुरेन्द्र से कहा---- भैया! एक सज्जन आपसे मिलने आये हैं। कहते हैं, मुझे सुरेन्द्र बाबू से एक जरूरी काम है।
सुरेन्द्र अभी आता हूँ, बोलकर जब दरवाजे पर पहुँचा, देखा---- एक पिछत्तर साल का आदमी जो कि पहले से बैठा हुआ था, देखते ही खड़ा हो गया, और दोनों हाथ जोड़कर कहा---- प्रणाम! सुरेन्द्र बाबू।
सुरेन्द्र ने भी उसी अंदाज में कहा---- प्रणाम ! दोनों बैठे। बात चली, आगन्तुक ने बताया---- मेरा नाम महादेव है। मैं पोखड़ा गाँव का एक किसान हूँ। मेरे पास सौ बीघे जमीन और एक बेटा है, जिसकी शादी आज से दो साल पहले हो गई; लेकिन विधि की क्रूरता देखिये, बहू एक बच्चे को जन्म देते बख्त दुनिया से चली गई। मेरी पत्नी भी नहीं है और मैं विधुर हूँ। इसलिए उस बच्चे के लिए मैं आपसे कुछ माँगने आया हूँ। इजाजत दें तो बताने का साहस करूँ।
सुरेन्द्र समझ गया कि महादेव क्या माँगने आया है, इसलिए उसने विनीत स्वर में कहा---- मेरा भी तो यही हाल है, मेरी भी एक बेटी है जो विधाता के गुस्से का शिकार हो गई और उसे फ़िर से लौटकर मेरे घर आना पड़ा, खैर छोड़िये! हाँ तो आप क्या चाह रहे हैं? उस दुधमुँहे बच्चे के लिए, बताइये। मुझसे जो भी संभव होगा, मैं करूँगा।
सुरेन्द्र की बात सुनकर, महादेव की मुखाकृति खिल उठी। सुरेन्द्र दरवाजे पर से आँगन में आया, तो देखा---- पत्नी रूपा जली बैठी है।
वह तीक्ष्ण नेत्रों से देखकर बोली---- तुम मुझे थोड़ी सी संखिया क्यों नहीं दे देते; तुम्हारा गला भी छूट जाता, मैं भी जंजाल से मुक्त हो जाती।
सुरेन्द्र एक आदर्श पति बनते हुए कहा---- संखिया खाने की ईच्छा तो मेरी भी होती है, जब मैं चिड़ियों सी फ़ुदकने वाली, अपनी बेटी को चुपचाप मन मारे देखता हूँ। लेकिन हम दोनों के मरने से, माला का क्या होगा, कभी सोचा तुमने? दूसरी शादी का विरोध करने वाला हमारा समाज उसके साथ कैसा सलूक करेगा, उसे नोंच-खसोट कर खा जायगा। इसलिए तो आज मैं तुमको कुछ बताना चाह रहा हूँ।
ममता के भार से लदी रूपा, अपने रूखे बालों को समेटती हुई, परास्त होकर भारी स्वर में बोली---- तुम्हारे स्नेह और वात्सल्य तथा निष्ठा पर मुझे शक है, जो इस कदर बातें कर रहे हो; जो कहना है, कह डालो।
सुरेन्द्र, पत्नी का उपदेश सुनकर आत्मलज्जित हो गया, उसकी आँखें सजल हो आईं। उसने उत्सुक होकर बताया---- जानती हो रूपा! अपने दरवाजे पर जो मेहमान आए हुए हैं, वे पोखड़ा गाँव के एक धनी आदमी हैं। उनके बेटे की शादी दो साल पहले हुई थी, लेकिन बहू एक बच्चे को जन्म देते बख्त गुजर गई। वे चाहते हैं, कि माला अगर उस नन्हीं जान को अपना ले, तो उनके घर एक और मौत होने से टल जायगी।
रूपा---- श्रद्धापूर्ण नेत्रों से सुरेन्द्र को देखी; उसके हृदय में माला के लिए कितनी दया और समाज की निर्भीकता है, उसे पहली बार ग्यात हुआ।
रूपा सकुचाती हुई बोली---- अगर मैं कहूँ, कि हमारा समाज इतना बुरा नहीं है, यो यह असत्य होगा, लेकिन ऐसे संस्कारों को हमें मिटाना होगा। माला ने कोई अपराध नहीं किया है, तो फ़िर सजा कैसी?
सुरेन्द्र ने देखा---- रूपा निर्मल नारी की ज्योति में नहा उठी है। उसका देवीत्व प्रस्फ़ुटित होकर उससे आलिंगन कर रहा है। फ़िर क्या था, सुरेन्द्र दरवाजे पर जाकर, लड़के के पिता महादेव से कहा---- ठीक है, तो हमलोग तैयार हैं।
माला की शादी, अजय से हुए साल बीतने आया था कि एक दिन संध्या का समय था, बच्चा पालने में सो रहा था। माला हाथ में पँखियाँ लिए एक मोढ़े पर बैठी, हवा झेल रही थी। उसके माधुर्य में किशोरी चपलता नहीं थी, बल्कि नये मातृत्व का शांत-तृप्त मंगलमय लिबाश था।
तभी माला के पति सुरेन्द्र ने माला से कहा---- माला कुछ खाने मिलेगा, बड़ी जोर से भूख लगी है।
माला, मुस्कुराती हुई कही---- क्यों नहीं, मैं अभी लेकर आती हूँ, तुम मुन्ने के पास थोड़ी देर बैठो। कुछ देर में माला खाना लेकर सुरेन्द्र के सामने रखती हुई बोली---- खा लो। सुरेन्द्र खाना खाने बैठ गया कि अचानक उसे अचार की याद आई। उसने कहा---- माला अचार कहाँ रखी हो, थोड़ा चाहिये।
माला ने कहा---- अचार ताखे पर है, लेकिन तुम खाना खाओ, मैं लेकर आती हूँ। सुरेन्द्र जरा भी देर न कर, अचार लाने खुद से चला गया, लेकिन जब बहुत देर तक लौटकर नहीं आया तब माला, किसी अनहोनी की शंका से काँप गई। वह दौड़ती हुई घर के भीतर गई, वहाँ पहुँचकर देखी---- सुरेन्द्र धरती पर गिरा हुआ है, उसके मुँह से फ़ेन निकल रहा है। माला चिल्लाई---- क्या हो गया आपको, आप गिरे पड़े क्यों हैं? उसका चिल्लाना सुनकर दूसरे कमरे में सो रहे उसके ससुर की नींद खुल गई, वे दौड़कर आये। बहू से पूछे---- क्या हुआ सुरेन्द्र को ? माला रोती हुई बोली---- कुछ नहीं, ये ताखे पर से अचार लेने आये, उसके बाद----। सुरेन्द्र के पिता, अचार के पास गये, देखे---- एक नाग अचार के बर्तन से लिपटा बैठा हुआ है। महादेव समझ गया,उसने चिल्लाकर माला से रोते हुए कहा---- डाईन! इसे भी खा गई। लोग ठीक ही कहा करते थे तुम्हारे बारे में, कि तुम नागिन हो। आज मेरे बेटे को भी डँस ली। तुम मेरे घर से निकल जाओ, मैं तुमको एक मुहूर्त देखना नहीं चाहता।
माला के पिता को जब यह खबर मिली, तो वे भी भौचक्के रह गये। यह क्या, इसी उमर में, एक नहीं, दो-दो बार पति को खोई, जरूर इसके भाग्य में ही खोंट है। इसके नसीब में पति-सुख नहीं है। हाय रे मनुष्य का भाग्य! तेरी भित्ति कितनी अस्थिर है, बालू पर की दीवार तो बरसा में गिरती है, पर तेरी दीवार बिना पानी-बूँद की ढ़ह जाती है। आँधी में दीपक पर कुछ भरोसा किया जा सकता है, पर तेरा नहीं। तेरी अस्थिरता के आगे, बालकों का घरौंदा अचल पर्वत है लेकिन भाग्य लिखनेवाला ईश्वर, जिसके प्रेम-स्वरूप यह ब्रह्मांड है, वह इतना निर्दयी हो सकता है। अगर ईश्वर निर्दयी नहीं है, तो कौन सी ऐसी शक्ति है, जो मक्कार भी है और जादूगर भी; छिपकर वार करती है।
सहसा उसकी नजर, उसकी ओर बढ़ती आ रही, एक मनुष्य –आकृति पर पड़ी। वह तड़प उठा और ऊँचे स्वर में रोते हुए चिल्लाया---- तुम माला नहीं हो। माला अपने घर में पति के साथ है, यह उसका घर नहीं है। दूसरी तरफ़ से आवाज आई---- नहीं पिता जी, अब यही घर मेरा है, यहाँ रहने देंगे मुझे?
पिता सुरेन्द्र, उस आवाज की ओर नेत्र फ़ाड़-फ़ाड़कर इस कदर देखने लगा, जैसे नेत्र पाकर अंधा संसार को, तृषित होकर देखता है।
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