Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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भाग्यहीन

 

 

-----------डा० श्रीमती तारा सिंह,नवी मुम्बई

 


कहते हैं, ज्यों संतों का अतीत होता है
त्यों, पापियों का भी भविष्य होता है
मगर इस दुनिया में,एक अभागा व्यक्ति
तीनो कालों से ज़ुदा, स्वाधीन जीता है
जल रही सत्य की ज्वाला के नाचते
दहन खंडों से, अपना स्वप्न सजाता है
और एक दिन वह्नि रसकोश लिये
चिर जीवन - संगिनी ,प्राण पक्षी संग
व्योम की निस्सीमता में खो जाता है

 

 

इस आस के साथ, उड़े जो मेरे कण नाद
सभी ऊपर जाकर सितारे बन गये, वहाँ
पहुँचकर,अछूता रहे जीवन रस को छूऊँगा
अचल हिमानी, उसमें घुलमिल कर ज्यों
अपना सुंदर रूप बनाता, मैं भी वहाँ के
मृत्ति,संसृति, नति में ढल,जीवन सजाऊँगा

 

 

मगर अग्यान मनुज को यह नहीं मालूम
ईश्वरीय जग,गोचर जग से भिन्न नहीं है
दृष्टि को ऊपर बिरवा सा औंधा हुआ
जो नजर आ रहा, धरती की छाया है

 

 

 

यह सोचना , उस अरूप अनिकेतन में
कोई संत देह धरकर , बैठा मिलेगा
जो मेरे भविष्य वन के छाया तिमिर को
हटाकर, उसमें खुशियों का आलोक भरेगा
द्वंद्वों का यह आभास,द्वैतमय मानस की
अपनी सोच है, भ्रमित मन की चिंता है

 


असल में व्योम- व्योम हम जिसे पुकार रहे
उसका अपना कोई आकार नहीं है,परिवर्त्तन के
क्रम में, क्षण -क्षण वह बदलता रहता है
इसलिए आकार पटी पर जितने भी चित्र
रंग भरे सुरधनु पट पर उभरते हैं
सकल अणुबल पल में घुल व्यापक
शून्यता -सा धूमिल पट को बुनते हैं
मगर , आकार – चेतना का विकसित रूप
मनुज ,बदलता नहीं, मिट, खत्म हो जाता है
व्यर्थ ही मनुज रश्मि रज्जु से अपना भाग्य
बाँधकर , तकदीर की लकीर को पीटता है


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