Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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भारत पिछड़ा देश क्यों ?

 

किसी भी सुखी-सम्पन्न देश का नागरिक होना गर्व की बात होती है, साथ ही होता है उस देश के राजनेताओं के स्वस्थ मनोभावों का आईना भी । लेकिन हमारे देश की विडंबना है कि इन नेताओं के हृदय से एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न राष्ट्र का मनोभाव लगभग समाप्त हो चुका है । एक लम्बे संघर्ष के बाद हासिल स्वतंत्रता का अर्थ इनके सामने कोई मायने नहीं रखता,बल्कि ये देश को जाति-धर्म के नाम पर आग की भट्टी में झोंककर, देश के खजानों के बंदरबाँट में ज्यादा दिलचस्पी लेने लगे हैं । ये नेता योजना का नाम देकर देश के खजानों को लूट रहे हैं । एक तरफ़ देश की जनता बुनियादी सुविधा के लिए तरस रही है, बच्चे इलाज बिना मर रहे हैं; दूसरी तरफ़ ये नेता अपने जनम दिन पर फ़ुलझड़ियाँ उड़ाकर करोड़ों रुपये जला दे रहे हैं ।

 

यह, भ्रष्टाचार हमारे देश के लिए अत्यन्त घातक समस्या है । चोर- बाजारी, काला धंधा , अनैतिकता और व्यभिचार, रिश्वतखोरी और स्मग्लिंग आदि कौन सी ऐसी विकराल समस्या से हमारा समाज दो-चार नहीं हो रहा; युवा-वर्ग ,बेकारी और अंधकार पूर्ण भविष्य से पीड़ित हैं । प्रगति और विकास की सभी उपलब्धियाँ व्यर्थ हो जा रही हैं । गरीब और गरीब; अमीर और अमीर हो जा रहा है । वर्ग विभेद अपनी उग्रता के साथ उभर रहा है । कहते हैं, वैदिक काल में आदमी अपने अच्छे-बुरे कर्मों के लिए जाना जाता था । इसी बात ने देव-दानव जैसी प्रकल्पना को जन्म व आधार दिया । अच्छे कर्म करने वाले देव, बुरे कर्म वाले दानव या राक्षस कहे जाते थे । मगर बाद में स्थिति. सामर्थ्य और कर्म के आधार पर ,भारतीय समाज वर्णों में विभाजित हो गया । धीरे-धीरे यह समाज अनेक समस्याओं का अखाड़ा बन गया । जो आज भी है,इसके अलावे भारत में बुनियादी धर्मों के साथ-साथ अनेक सम्प्रदाय आकार पाते रहे । बाहरी सम्प्रदाय भी यहाँ आकर रहने लगे और आपस में अपने सम्प्रदाय को श्रेष्ठ सिद्ध करने के लिए, खूनी संघर्ष करने लगे ।


इस प्रकार भारतीय समाज चिरकाल धार्मिक सम्प्रदायिक समस्याओं से घिरा रहा है, और जब से भारत वर्ण व्यवस्था के शिकंजे में आया, जन –शोषण और अपमान को सहता रहा । भारतीय मानव –समाज को भेदभाव जन्य समस्याओं से छुटकारा दिलाने के लिए , समय-समय पर बुद्ध, जैन तीर्थांकर, कबीर , नानक, गाँधी जैसे महापुरुष अवतार लिये । सबों ने कहा, ’ हम इन्सान हैं, हिन्दू या मुसलमान नहीं; इसलिए आदमी-आदमी का भेद करना छोड़ो और मिल-जुलकर रहो । तभी हम और हमारा समाज आगे बढ़ेगा, लेकिन उनके प्रयास असफ़ल रहे । ज्यों-ज्यों हम आधुनिक हो रहे हैं, विषमता के रंग और पक्के होते जा रहे हैं । पिछड़ापन का ही प्रतिफ़ल है कि आज भी धार्मिक अंधविश्वासी द्वारा नरबलि दी जाने वाली बातें सामने आती हैं ।

 

गाँधी का राम राज्य बनाने का सपना धरा रह गया । बिनोबा भावे का ’ सर्वजन सुखाय,सर्वजन हिताय’ हँसी के लतीफ़े बन गये हैं । अभी तो देश लूटने की होड़ लगी है; ’लूट सको जो लूट’ । आजाद की फ़ांसी, खुदीराम का बलिदान, गाँधी का त्याग इतिहास के पन्नों में बंद हो गया । जहाँ तक मैं समझती हूँ, हमारा देश गरीब नहीं है । अगर है तो इन राष्ट्र नेताओं और उद्योगपतियों से है, जो देश की जनता का हक अपने नाम किये हुए हैं । ये दोनों ही आपस में मौसेरे भाई हैं; एक ही थाली के चट्टे-बट्टे हैं । देश की जनता इनकी काली करतूतों को एकजूट होकर निकालने की ठान ले, तो अभी का अभी हमारा देश विकसित देश बन जायगा । यह काम कठिन नहीं है, पर जरूरत है मनोबल और एकता की ।

 


वर्गवाद, जातिवाद, भाईभतीजावाद , बेकारी और महंगाई को जनम देता है । जिसमें लोग पिसते जा रहे हैं । बना-बनाया समाज अहं और आर्थिक विषमताओं का शिकार होकर बिखरते जा रहे हैं । सारा विश्व बदल गया, भारत हजार साल पहले जहाँ था,आज भी वहीं खड़ा दिखाई पड़ता है । बड़े खेद के साथ कहना पड़ता है कि हमारा देश कैसे आगे बढ़े, इसके बारे में हम चर्चा कम,पर हम क्या हैं, इस पर ध्यान अधिक देते हैं ।

 


मध्यकाल की भाँति आज फ़िर प्रांतीयता की सीमित, संकुचित भावनाओं से हमारी राष्ट्रीयता की चेतना को चोट पहुँचा रहा है । इस अभिशाप के उभरते प्रभाव को अभी नहीं दबाया गया, तो हो सकता है भारत एक बार फ़िर से मध्यकालीन टुकड़ों में बँट जाय । इसलिए देश को प्रांतों में बाँटकर, भारतीय संस्कृति के अस्तित्व की कल्पना एकमात्र भ्रम है ; न ही देश इससे उन्नति की प्राप्ति कर सकेगा क्योंकि सबों के अलग-अलग मत, अलग-अलग दिशाओं में खींचेगा; अपने स्वार्थ के अनुकूल ।
ऐसे में देश उन्नति के पथ पर अग्रसर न होकर गर्त में चला जायगा ।


महाकवि जयशंकर प्रसाद के नाटक, ’चन्द्रगुप्त’ में सैल्यूकस की पुत्री, कार्नलिया का हॄदय , ’भारत ही, अरुणमय देश हमारा” मानता है । निश्चय ही यह प्रसाद जी का ’वसुधैव कुटुम्बकम’, विराट भारती के चिंतन की परम्परा का विस्तार करता है । ईश्वर प्रदत्त इस धरती पर जीने का सबको समान अधिकार है । वे महान थे, उनका विचार स्तुति तुल्य है ।
हमारे देश की विडम्बना कहिये, शिक्षा के नाम पर हर साल अरबों रुपये रखे जाते हैं । ये पैसे खर्च भी होते हैं, लेकिन शिक्षा पर नहीं; नेताओं की अंग्रेजियत, रहन-सहन और उनके नौकरों, कुत्तों पर । कारण हमारे देश में 40 प्रतिशत लोग ही पढ़े-लिखे हैं ; उस पर कन्या-शिक्षा तो नहीं के बराबर । वोट बैंक बना रहे, इसके लिए जन-आबादी पर रोक नहीं लगाते । देश की जनसंख्या बढ़ती चली जा रही है, जो हमारे देश को बीमार और अस्वस्थ रखने का सबसे बड़ा कारण है । सैलाब की तरह बढ़ रही जनसंख्या को रोकने के लिए शिक्षा और सतर्कता,दोनों की आवश्यक है । सरकार की तरफ़ से दोनों नदारद हैं । यही कारण है कि हमारे देश की आर्थिक अवस्था इतनी दयनीय है ।


हम भारतीय, रोटी के लिए अन्यान्य देशों में जाकर भटकते फ़िरते हैं । जब तक हमारे देश के नेताओं के हृदय में राष्ट्रधर्म की भावना नहीं आयेगी, वे देश को यूँ ही और कंगाल बनाते चले जायेंगे । तब इस धरा पर जीने का हक सिर्फ़ नेताओं, उद्योगपतियों और बाहुबलियों को रहेगा; शेष लोगों की जिंदगी इससे भी अधिक नरक तुल्य बनकर रह जायगी ।

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