डा० श्रीमती तारा सिंह
आज का नहीं,सदियों का यह विश्वास रहा है
ऊपर का नील आवरण,दृष्टि जगत से बड़ा है
वहाँ शिशिर-निदाघ , दोनों साथ-साथ रहते
पतझड़-वषंत ,एक दूजे से हँसकर मिलते
यहाँ जीवन में अभिशाप,शाप में ताप भरा है
जो जीवन को जीने नहीं देता, हर क्षण
खर-फ़ूस की तरह प्राण को जलाये रखता
कहता, दाह मनुज का पहला धरम है
इसलिए मनुज तुम जलता चल
छोड़ चला आया जब,वह सुंदर निवास
अब वन-गुहा-मरु अँचल में क्या खोज रहा है
स्वर्ग खंड की यह पुण्यभूमि ,जिसे
भव मानस का मिलन तीर्थ कहा गया है
यहाँ युगोम का, प्रेत रक्त चंडी बन
निरीह मानव का रक्त चूस रहा है
कभी फ़ूलों को सुरभि, कभी सुरभि को
उड़ने की इच्छा ने बरबाद किया है
वहाँ उल्काधारी ग्रह, तारे, उडुगण सारे
सजग प्रहरी से, दिन-रात खड़े रहते
महाकाल वहाँ पहुँच नहीं पाता, न ही
प्रलय का डेरा है,बड़ा ही कड़ा पहरा है
इसलिए बेफ़िक्री का समा-सा फ़ैला आसमां
अखिल प्राणियों के लिए उत्तम,श्रेयस्कर है
मनुज मन का यह तर्क,प्रलय-भीत तन रक्षा की
व्याकुलता है,या उलटी मति का व्यर्थ ग्यान है
मुझे नहीं मालूम,मगर यह सोच पूर्ण निराधार है
ऊपर आँखों को विरुवा-सा औंधा जो दीख रहा
जिसे आसमां,आसमां पुकार मनुज परेशान है
वह और कुछ नहीं,धरती की छाया है
दोनों में कोई भेद नहीं,यह केवल भ्रांत मन की
आँखों का हेर और दूरत्व का फ़ेरा है
जो व्यथा,विश्व को चिता धूलि में सुलाये रखती है
उसी व्यथा से व्यथित होकर,रातों की निस्सीमता में
आकाश,तृण द्रुमों पर ओस –कण बन रोता है
विषाण के निनाद से धरती,आसमां दोनों मौन है
जीवन ही कल मृत्यु बनेगा, मृत्यु नव जीवन
द्वन्द्वों का यह उत्थान-पतन, जीवन में मुस्कान
आने नहीं देता,भव मानवता से पीड़ित
पिंजड़े में जकड़ा मनुज, अवनितल से
क्षितिज में उड़ने, खगकुल- सी चोंचें ले
सुर्खाब व्योम –सा अंतर्नाद कर रहा
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