भगवान ! तुम क्यों हो महान
भगवान ! तुम इसलिए नहीं हो महान
कि तुम धरा मनुज के ज्वलित हृदय
भूमि में ,शाश्वत ज्योतिवाह बन
जीवन तम को स्वर्णिम कर नहलाते
पीड़ा को अश्रु का भाव बनाकर
हृदय से निकाल,मन को करते शांत
बल्कि भगवान,तुम इसलिए हो महान
तुम रूप- मदिर से उन्मद,यौवन का
उन्माद बन प्रेयसी के अंग-अंग से
लिपटे रहते,जिससे युवती की देहलता
मुकुलों से लद ,बन जाती छविधाम
जिसके प्रणय की शीतल छाया में,विश्व
का निखिल प्रेमी नर, जग के सुख-दुख
पाप-पुण्य से दूर ,निज सुख में तल्लीन
जीता ,दो देह होकर भी, रहते एक प्राण
रस छंदों का ग्यान न होकर भी, हृदय
करता गान, कर निज प्रतिभा का अभिमान
अम्बर की घोर विकलता,धरती का आकुल दाह
दोनों से बेपरवाह, दूर रहकर सरि की कल-कल
ध्वनि की ओर लगाये रखता कान
सोचता ,विश्व के शून्य सदन में एक दिन
यह जीवन –दीप ,व्यर्थ ही बुझ जायेगा
क्यों नहीं बुझने के पहले ,इसकी लौ के
उन्मादों में छिपी है जो निनद उन्माद
अभिलाषा शलभ से उड़ा जा रहा जो
कर उसके कण -कण का मृदुपान
अपने ज्वलनशील अंतर को कर लें शांत
वरना शत- शत भुज फ़ैलाये तृष्णा
मनुज हृदय भूमि पर, अग्नि शस्य
जीवन पर्यंत लहराती रहेगी, मनुज
चुकाता रहेगा ,अपने जीवन का दाम
ऐसे में सप्त चेतना के अक्षय वैभव को
मनुज लोक चेतना में,मूर्तित कैसे करेगा
कैसे होगा ,जीवन का गौरवमय अवसान
युवती को देकर तुमने कोमल तन
सार्थक किया, प्रेमी नर का भू जीवन
अन्यथा , रोग , शोक , चिंता, विषाद
से पोषित मनुज,प्रभात से वंचित तो
रहता ही,दिन से होकर जीता अनजान
भगवान ! तुम इसलिए हो महान
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