चाहती हूँ ,मैं भी अमर हो जाऊँ
चाहती तो मैं भी हूँ, अमावस की
अमर गोद में डूबकर, अमर हो जाऊँ
अंगारे को गूँथकर गले में पहनूँ
अणु-अणु में संचित कर वेदना का गान
युग-युग की तुम्हारी पहचान बन जाऊँ
अपने मृदु पलकों को मुँदकर
दुख की मरकत प्याली से,अतीत को
पी लूँ , बूँद-बूँद कर आँसू छलकाऊँ
अंगारे का पुष्प सेज सजाऊँ
सोकर भस्म शेष रह जाऊँ
तुम्हारी स्मृतियों के तार को,अपने स्वर
तरंग से, सूने नभ को झंकृत कर दूँ
सो रहे तारक – किरण - रोमावली
नीड़ों में अलस विहग, को जगा दूँ
जगाकर उनसे पूछूँ, निष्ठुर देवता समान
क्यों सुनते हो मेरी व्यथित पुकार
तोड़कर अग्नि में जला दो मुझको
होगा तुम्ह
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