Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

दशहरा

 

डा० श्रीमती तारा सिंह

 

दशहरा (दुर्गापूजा), हिन्दुओं के प्रमुख पर्वों में गिना जाता है । यह त्योहार, जब वर्षा ऋतु अंतिम पड़ाव पर रहता है, आश्विन महीने के शुक्ल पक्ष दशवीं को मनाया जाता है ; जो कि दश दिनों तक चलता है । महालया के दूसरे ही दिन से देवी की आराधना और उपासना शुरू हो जाती है । हर हिन्दू परिवार, अपने –अपने घर में नौ दिन का उपवास रखते हैं और अंतिम दिन अर्थात दशवीं के एक दिन रावण का पुतला जलाकर इसकी समाप्ति करते हैं ।

 


कहते हैं, त्रेता युग में भगवान राम इसी दिन रावण के कैद से माता सीता को छुड़ाये थे और तब सारा मानव समाज, राक्षसों से भयमुक्त हुआ था । रावण को मारने से पहले भगवान राम, दुर्गाशक्ति की पूजा किये थे और माँ दुर्गा, भगवान राम की पूजा से प्रसन्न होकर विजयश्री का आशीर्वाद दी थी । दशहरा अथवा विजयादशमी, राम की विजय के रूप में मनाया जाये या दुर्गापूजा के रूप में; दोनों ही रूप शक्ति का है, इसलिए लोग इस दिन को शस्त्रपूजन भी कहते हैं । किसान अपने हल तथा कुदाल—खुर्पी आदि की पूजा कर माँ दुर्गा से इसमें शक्ति बनाये रखने की प्रार्थना करते हैं ,तो क्षत्रिय अपने शस्त्र की पूजा कर विजयश्री का आ्शीर्वाद मांगते हैं ।

 


दशहरा वर्ष के तीन अत्यन्त शुभतिथियों में एक है ; अन्य दो हैं ,चैत्र शुक्ल एवं कार्तिक शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा ,अधिकतर लोग इसी दिन अपना नया कार्य शुरू करते हैं । कहते हैं, प्राचीन काल में राजा-महाराजा इस दिन विजय की प्रार्थना कर रणक्षेत्र के लिए प्रस्थान करते थे । आज भी मैसूर के राजा इस दिन पूरे शहर की गलियों को रोशनी से सज्जित कर हाथियों का शृंगार कर पूरे शहर में एक भव्य जुलूस निकालते हैं । इनमें राजा स्वयं साथ होते हैं, राजा के महल (मैसूर महल ) को दीपमालाओं से सजाया जाता है । शहर भर के लोग टार्च लाइट के संग नृत्य, संगीत की शोभा-यात्रा निकालते हैं ; किन्तु द्रविड़ प्रदेशों में रावण –दहन का आयोजन नहीं होता है ।

 


बंगाल और असम की दुर्गापूजा देखते बनती है । पूरे बंगाल में यह पूजा पाँच दिनों तक चलता है; लेकिन असम में यह पूजा चार दिनों तक चलती है । यहाँ देवी माँ दुर्गा को भव्य सुशोभित पंडालों में विराजमान कराया जाता है । कोठे की मिट्टी से दुर्गा की प्रतिमा बनाने का रिवाजबहुत पुराना है, इसके लिए लोग बड़े सम्मान के साथ वहाँ जाते हैं, और उनके दिये मिट्टी से नीव पड़ती है । देश के नामी कलाकार इसे बनाते हैं । इनके साथ अन्य देवी –देवताओं की भी मुर्तियाँ बनाई जाती है ।

 

त्योहार के दौरान यहाँ छोटे-छोटे स्टाल भी मिठाइयों से भरे रहते हैं । यहाँ षष्ठी के दिन देवी दुर्गा का बोधन, आमंत्रण एवं प्राण-प्रतिष्ठा आदि का आयोजन किया जाता है । उसके बाद सप्तमी, अष्टवीं, नववीं के दिन प्रात: और सायंकाल दुर्गा की पूजा में व्यतीत होते हैं । अष्टमी के दिन महापूजा को बलि देने की प्रथा है; इसलिए कहीं-कहीं देवी दुर्गा-स्थान में यह बलि धड़ल्ले से दी जाती है ; जो कि किसी भी सूरत में मान्य नहीं होना चाहिये । देवी की आराधना जहाँ हो, बलि देना ,प्रतिमा का अपमान है और इसे रोकना अनिवार्य है । दशवीं के दिन बंगाली स्त्रियाँ सिंदूर –खेला करती हैं; इसमें सभी सधवायें एक दूसरे के गाल और मांग में सिंदूर लगाकर , सातो जनम सधवा रहने का,एक दूसरे को आशीर्वाद देती हैं । तदनंतर देवी की प्रतिमाऒ को बड़े-बड़े ट्रकों में भरकर विसर्जन के लिए ले जाया जाता है । यह देवी की विदाई कही जाती है , और साथ ही पुन: अगले साल लौट आने की अर्जी भी ।

 


तामिलनाडु में दशहरा नौ दिनों तक चलता है, जिसमें लक्ष्मी,सरस्वती और दुर्गा, तीनों देवियों की पूजा एक साथ होती है । गुजरात में मिट्टी के घड़े की पूजा ( जो कि रंग-विरंगे रंगों से रंगा होता है ) होती है ; जिसे कुँवारी लड़कियाँ अपने सिर पर रखकर लोकप्रिय नृत्य करती हैं । गरवा नृत्य इस पर्व की शान है ,जिसे स्त्री और पुरुष,दोनों मिलकर करते हैं ।
महाराष्ट्र में दुर्गापूजा नौ दिनों की होती है, जब कि दशवें दिन यहाँ विद्या देवी सरस्वती की पूजा होती है । यह दिन किसी भी अच्छे कार्य के लिए शुभ माना गया है, खासकर, नवजात बच्चे के विद्या आरम्भ करने के लिए, महाराष्ट्र के लोग इस दिन, गृहप्रवेश ,शादी आदि भी करने में खुद को भाग्यशाली समझते हैं ।

 


कश्मीर के अल्पसंख्यक हिन्दू नवरात्रि के पर्व को बड़ी श्रद्धा से मनाते हैं,परिवार के सारे सदस्य इस नौ दिन को जलाहार रहकर मनाते हैं । हजारों साल से यहाँ के लोग इन दिनों रोज माता खीर भवानी का दर्शन करते हैं । यह मंदिर एक झील के बीचोबीच बना हुआ है । ऐसा माना जाता है कि देवी अपने भक्तों से कही है, यदि कोई अनहोनी होने वाली रहेगी तो सरोवर का पानी, काला हो जायगा । सुना जाता है, इन्दिरा गाँधी की हत्या के एक दिन पहले सरोवर का पानी काला हो गया था और पाकिस्तान युद्ध के पहले भी कुछ ऐसा ही हुआ था ।

 


लेकिन इन सब कहानियों के बावजूद कुछ कहानियाँ धर्म से हटकर हैं, वह है , भारत एक कृषि प्रधान देश है । किसान जब अपने खेत से नये फ़सल को काटकर घर लाते हैं,तब उस उल्लास का पारावार नहीं रहता है, इसे वे ईश्वर की असीम दया मानते हैं । अपनी भक्ति और श्रद्धा को भगवान के प्रति व्यक्त करने के लिए लोग विभिन्न रूपों में, विभिन्न प्रदेशों में अलग-अलग तरह से मनाई जाती है । किसान अपने खेतों से अधपके फ़सल को जैसे, धान की हरी बालियों को अपने घरों के मुख्य द्वार पर टाँगते हैं । इतना ही नहीं, अपने कानों पर, मस्तक पर, और पगड़ी पर भी लगाते हैं ।

 


हिन्दूशास्त्र के अनुसार, दशरथ-पुत्र राम. अपने बनवास के दौरान, राक्षर –राजा रावण का बध कर अपनी पत्नी सीता को छुड़ाने तथा इस संसार को रावण के अत्याचार से मुक्त कराने, रावण के साथ दश दिनों तक युद्ध करते रह गये थे । दश दिनों बाद जाकर विजय पाये थे; इसलिए दुर्गा-पूजा दश दिनों तक चलती है । पूर्ण विश्व को चलाने वाली ,दुर्गा और पार्वती, नाम भले दो हों, लेकिन दोनों ही कण-कण में व्याप्त महामाया की शक्ति,अनादि और अनंत हैं । सम्पूर्ण चराचर की अधिष्ठात्री, माँ के समस्त अवतारों की पूजा करने से,उपासना का तेज बढ़ता है एवं दुष्टों को दंड मिलता है, महादेवी की अष्टभुजाएँ क्रमश: पंचमहाभूत व तीन महागुण हैं । महादेवी का प्रत्येक अवतार तंत्रशास्त्र से सम्बंधित है, यह देवी की अपने-आप में एक अद्भुत महिमा है ।

 


शिवपुराण के अनुसार, महादेव दशम अवतारों में महाशक्ति जगदम्बा प्रत्येक अवतार में अवतरित हुई थीं । उन समस्त अवतारों में नाम इस प्रकार हैं----

 


(१) महादेव के महाकाल अवतार में महाकाली बनकर साथ थीं
(२) तारकेश्वर अवतार में भगवती तारा
(३) भुवनेश अवतार में भुवनेश्वरी
(४) महादेव के षोडश अवतार में देवी षोडशी
(५) भैरव के अवतार में भैरवी
(६) छिन्नमस्तक अवतार में छिन्नमाता
(७) ध्रूमवान अवतार में धूमावती
(८) बगलामुखी अवतार में बगलामुखी
(९) मातंग अवतार में बगलामुखी
(१०)महादेव के कमल अवतार के समय कमलादेवी

 


उग्रचंडी भी माँ दुर्गा का ही एक नाम है । कहते हैं, एक बार राजा दक्ष (माँ काली के पिता) ने अपने यग्य में सभी देवताओं को निमंत्रण दी, लेकिन शिव और सती को निमंत्रण नहीं दिया । इससे उग्र होकर ,अपने अपमान का प्रतिकार लेने,उग्रचंडी का रूप धारण कर अपने पिता के यग्य का ध्वंश किया; तभी से उनका नाम ,उग्रचंडी पड़ा । पुराण के अनुसार , असुरों के अत्याचार से तंग देवताओं ने जब स्वयं ब्रह्माजी से सुना, कि दैत्यराज को यह वरदान हासिल है कि उसकी मृत्यु कुँवारी कन्या के हाथों होगी ,तब देवताओं ने अपनी सम्मिलित तेज से, देवी के इन रूपों को प्रगट किया -------

 


भगवान शंकर की तेज से देवी का मुख प्रकट हुआ
यमराज से मस्तक के केश
विष्णु से तेज भुजाएँ
चन्द्रमा के तेज से स्तन
इन्द्र के तेज से कमर
वरूण के तेज से जंघा
पृथ्वी के तेज से नितंब
ब्रह्मा के तेज से चरण
सूर्य के तेज से पाँव की उँगलियाँ
प्रजापति के तेज से दाँत
अग्नि से आँखें
संध्या से भौहें
वायु से कान

 


तथा अन्य देवताओं के तेज से भिन्न-भिन्न अंग बने । शिवजी अपना त्रिशूल दिये, लक्ष्मीजी -कमल के फ़ूल, विष्णुजी- चक्र, अग्नि –शक्ति व वाणों से भरे तरकश, प्रजापति- स्फ़टिक मणियों की माला, वरुण- दिव्य शंख, हनुमानजी- गदा, शेषनाग- मणियों से सुशोभित नाग, इन्द्र ने बज्र, रामजी- धनुष, वरुण- पाश व तीर, ब्रह्माजी- चारों वेद तथा हिमालय –सिंह प्रदान किये । इसके अलावा, समुद्र ने उज्ज्वल हार दिया, कभी न फ़टनेवाली दिव्य-वस्त्र, चूड़ामणि, दो कुंडल, हाथ का कंगन, पैर के नुपुर तथा अँगूठियाँ भेंट की । इन सभी वस्तुओं को देवी ने अपने अठारह भुजाओं में धारण किया । महाकाली ही सरस्वती और लक्ष्मी जो भिन्न-भिन्न रूपों में, भिन्न-भिन्न कार्यों का संचालन करती है ।

 


इनकी प्रार्थना अत्यन्त शांतिदायी है -----

 

 

जयंति मंगलाकाली-- भद्रकाली कपालिनी
दुर्गा क्षमा—शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोस्तुते ॥


--------० ---------०----------०----------

 

डा० श्रीमती तारा सिंह

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ