देख तुम्हारी छवि साकार, भरूँगी माँग
नयन सूखे, पलक रूखे, बैठकर एकांत
करती हूँ जब तुम्हारा श्याम रंग ध्यान
इच्छाओं के कंपन से,हृदय के कण-कण से
बहने लगता आँखों से अश्क, निर्झर समान
गिर – गिर कर कपोलों को गीला करता
उभर आता हृदय सिंधु में विरह का तूफ़ान
मेरे अलसित तन में दौड़ जाती तब
विद्युत –सी कोई शक्ति अनजान
नभ गर्वित अपना वह, शीश झुकाकर
निज अरूप में मुझको स्वरूप भरकर
अपने सजल स्वर्ण से पावन कर
हो जाता अंतर्द्धान वह हिमवान
नित सुनहरी साँझ से,जब मिलने आता अंधेरा
लगता, कोई मधुप तिमिर की घोर छाया से
मेरे लिए,जीवन सुधा की दो घूँट लाया है माँग
जिसे पीकर आलोक – सा डोलूँगी मैं
बिछी पदतल के नीचे धरणि निस्सीम
और ऊपर अनंत आकाश, दोनों के बीच
शून्यता का होता कैसा आभास ,बतलाऊँगी मैं
मेरे दृगों से बह रहे अश्रु बाढ़ में
बह जायेंगे, ये क्षुद्र तारे – सूरज - चाँद
तब मैं उस अनंत के श्याम पटल पर, किरणों
की रेखाओं में भरकर, तुमको दूँगी एक आकार
देख उसमें,छवि साकार तुम्हारी भरूँगी अपनी माँग
वैतरणी के छींटे किस पर नहीं पड़े, कौन है
इतना जर्जर जिसमें नहीं है जवानी की आग
विधु की तनया चन्द्रिका भी, पवनान्दोलित
वारिद तरंग पर समासीन होकर,उड़ते मेघों को
बाँहों में भरकर, स्वप्नों की प्रतिमाओं का
आलिंगन करती,भू–नभ सुनते उसके प्रणय गान
दृगों के सम्मुख भले ही,उसका रंग–रूप ओझल हो
मगर अनुभूति, कल्पना के रहस्य में छिपाकर
ज्योति पुंज में साकार कर,कराती उससे मुलाकात
ज्यों शत – शत इन्दु बिम्ब के रजत मराल को
पकड़कर स्वर्ग –गंगा में तैरते रहते बाहु मृणाल
मैं भी मृदु–मृदु स्वप्नों से भरकर अपना अंचल
प्रीति तरु के कोमल छाया के नीचे बैठकर
प्रिय के उज्ज्वल, अमंद ज्योति ,विवेक से अपने
उर को, दीपित कर हटाती जीवन का अंधकार
फ़िर जगमग – जगमग करता अपने हृदय आँगन में
स्वर्णाकांक्षा का माल्य लिए , करती उसका इन्तजार
सुमनों के समूहों में बनकर सुहास,आता जब मेरे पास
हिमकाल ज्यों धूप को स्पर्श करता, उसे स्पर्श कर मैं
सोचती, यही है वह रूप का प्रतिरूप, अनूप ,जिसके
लिए मैं लगाती आई, अश्रु के मोतियों की हाट
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