Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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दिल्ली

 

दिल्ली ! एक तरफ़ तो है सीख तेरी

जो पूर्णचन्द्र की ज्योत्सना में तुम

अपने मन-प्राण को, मृदु फ़ूलों की

रस गंध से, मज्जित न कर सके

बसा न सके अगर दिल की बस्ती

तब मन को न मलिन करना

अभी गरम है लहू तुममें बह रहा

गुलाब न खिल सका , तो क्या हुआ

सूरज की किरणों की छाती में है दिनकर

की लाली भरी हुई,उसे चीरकर ले आओ

उसी से है रंग लाल, गुलाब का

अग्येय न रह जाओ, कुछ तो कर जाओ

चल रही है रेती की आँधी

तुम्हारे चतुर्दिक , तो चलने दो

जो फ़ूल अभी है धूल में पड़ा हुआ

वही वृत पर मुस्कुरायेगा , मानो

प्रकृति के परिवर्तन के क्रम में,सब कुछ

बदलता रहता है , मरु में उदधि

उदधि में वसुधा, वसुधा में जलनिधि

जलनिधि में ज्वाला, प्रलय में सृजन

घोर तम में प्रकाश छिपा होता है

इसलिए निज हाथ की विकृत रेखाओं से

मनुज का भाग्य होता अशांत,सोचना छोड़ो

सुख सौरभ के तरंग को कंपित करने से

देह लतिका फ़ूल उठेगी, यह भ्रम है तेरा

इसे न मानो, बल्कि अंध प्रेरणाओं से

विकसित लालसा , सदा अपराधों को

स्वीकृति देती, इसकी काली छाया में

जिंदगी नहीं पलती, मौत पलती

यह कर्मलोक है, इसे याद रखो

ऐसे भी पंचतंत्र से बना इस जीवन में

एक भी नहीं हैं सम्मिलित सुख के कण

इसमें है, जल, मृति, वायु, आकाश और

अग्नि भरी हुई, जो जीवन की ज्वाला से

स्वयं ज्वलित है,इसे और न तृषा की हवा दो

किसने कहा तुमसे, धन की मधुमयी ,शीतल

छाया में, आदमी देवों सा निखरता है, और

निर्धनता मन क्षितिज को मलिन किये रखता है

मैं तो यही जानती, झंझा के झोंके, जब

मनुज हृदय सिंधु को निर्ममता से मथती है

तब वह मन से छनकर गीतों में ध्वनित होती है

इसलिए अपनी छाया से परिचय रखो

जिस गंध-जग का ग्यान नहीं, उसकी बात छोड़ो

मगर, ओ जश्न – मौज में डूबी रहने वाली

दिल्ली , वैभव की दीवानी , क्या तू ने

अपने स्वर्ण महल के , लाल रेशमी

परदे को उठाकर बाहर देखा है कभी

कैसे भारत के बल की पहचान नारी

भूख-विषण्ण,लाचार,पत्ते से तन आवृत किये

क्यों पेड़ों के नीचे बैठकर रो रही

मगर, हरी दूब की पाँवड़ पर चलने वाली

उषा की स्वप्निल पलकों पर जगनेवाली

दिल्ली ! तुझे, इन सब बातों से क्या लेना

तुझको तो आता है केवल उत्सव मनाना

पर जो मिट गये, ओझल हो गये, सदा

के लिए अपनी बूढ़ी माँ की आँखों से

तेरे मान – सम्मान की खातिर, जो लौटकर

न आये अपने घर कभी, कान धरकर

सुनो, जंजीरों से बंधी उसकी जवानी का गर्जन

तेरे प्राचीरों से है आज भी सुनाई पड़ रही

ओ भू पर की,इन्द्रपरी कहलाने वाली

आखिर तू क्यों नहीं सोचती, तूने

इतनी सिद्धियाँ कहाँ से पाईं

देश भटक रहा सारा अंधेरे में

तेरे गली-कूँचे में रोशनी जगमगा रही

जनता क्षुधा ताप से चट्टानों के नीचे

दबी कराह रही,तू कहती गरीबी-बेकारी

के गंदेपन से मुझको दूर रखो

मेरी रेशमी साड़ी मैली हो रही

दिल में आज़ाद हिन्द का ख्वाब लिये

जो हँसते - हँसते फ़ांसी पर चढ़ गये

दिल्ली ! याद करो उसकी कुर्बानी

वरना जिस दिन यह ज्वलन्त वीर, माटी से

कढ़ बाहर आयेगा, तुझको भी जला डालेगा

फ़िर न कहना, ज्वलित आग का गोला

कहाँ से आकर मेरे आँगन आ गिरा

जो मेरा नगर-नगर , भट्टियों सा जल रहा

इसे हमारा पहरेदार क्यों कर नहीं रोक सका

दिल्ली ! तू मेरा कहा मान

देश की जनशक्ति को तू पहचान

इसके पहले कि तेरी रेशमी साड़ी को

आकर, तेरा ही सिपाही जला जाये, तू

रेशमी साड़ी को जनता पर कर दे कुर्बान

 

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