“साँझ का सूरज” यह नव प्रकाशित काव्य संकलन, छायावादी कवयित्री डा० तारा सिंह की कृति है । उससे पूर्व उनके सत्रह काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं । यह उनका अठारहवां काव्य संकलन है । अपने पिताश्री और माताश्री की स्मृतियों को समर्पित इस संग्रह को सरस्वती वंदना की इन पंक्तियों से शुरू किया गया है -------
“ तन में नव स्फ़ूर्ति दे माँ
साँसों में नई बयार दे
कादम्बिनी सुधा नीर बहा दे
नाव को कर पार दे
जय शारदे,माँ शारदे---“
अपने को “जग का बूढ़ा पथिक” कहकर , कवयित्री वृद्धावस्था की विवशता और शिथिलता का सजीव वर्णन कर रही है ।
जीवन की संध्या वेला में सूरज के ढलते ताप की अनिवार्यता और पश्चिम दिशा की ओर अग्रसर उस दिनकर की दैनिक यात्रा की विवेचना है । स्वर्ण आकांक्षा में निशा के अंचल में बैठी कोई मनोदशा, थकी हारी उदास होकर मेरे अन्त:करण में आकर बैठ जाती है । यह भाव है, संग्रह की एक विशिष्ट कविता के । कवयित्री ने पूछा है, उस अनजान परदेशी से, जो पता नहीं कब आकर, बैठ गया था । नाग केसरों की क्यारी के माध्यम से शांति का आह्वान करती हुई भावना का अतिरेक है । प्रेम को बार-बार पुकारने वाले प्रेमी को सम्बोधित कविता में पाप-पुण्य, शांति, समता, अर्जन-वर्जन, सभी भावों की अभिव्यक्ति है । कवयित्री अपने बचपन को लौटाने का आग्रह कर चित्रकार से स्मृतियों की तूलिका की माँग कर रही है ।
’विधवा’ शीर्षक से लिखित कविता में प्रश्न सूचक दृष्टि में जानना चाहती है कि मंदिर की दीपशिखा की भ्रांति टूटी तरू की छूटी लता सी दीन, यह कौन देवी है । इसके अतिरिक्त ’समर विजय की आशा’ के प्रति आश्वस्त भावों का एक व्याकरण, काव्य के माध्यम से मुखरित हो रही है । यही कारण है कि अब जिंदगी को अपने स्थान पर बैठे रहने का आग्रह कर रही है ।
’धूल,धुंध में अग्नि बीज’ बोने के भावों में बारूदी उन्माद का भाव मुखरित हो रहा है । वर्तमान आणविक अस्त्रों के संदर्भों को अलंकारिक भाषा में प्रस्तुत किया गया दस्तावेज है । प्रेम के सम्बन्धों का सामूहिक उदघोष , आणविक अस्त्रों और कपट, छल, हिंसा, स्पर्धा की होड़ का भी अभिव्यक्तिकरण है । इसी जब अन्तस की भाषा मौन हो जाये और मन में ’समर विजय ’ की कामना बनी रहे तो प्रश्नों की तारतम्यता निरन्तर बनी रहती है । उस समय जीवन को स्थित होकर बैठने का आग्रह किया जाता है ।
कवयित्री ने विरह की ज्वाला में जलने की प्रक्रिया का वर्णन अत्यन्त नये अन्दाज में किया है । इसके अलावा जिन कविताओं में कवयित्री के छायावादी भावों के दर्शन किये जा सकते हैं , उनमें ’ तीनो काल मुझमें निहत’,’वह कौन है’, प्राणाकांक्षा’,’ मन तू हौले-हौले डोल’,”हम विहग चिर क्षूद्र’, आदि उल्लेखनीय हैं । ”माँ की पुण्यतिथि’ पर लिखित कविता भी स्मृतियों को संजोने का प्रयास है । ’गंगा’,’वट वृक्ष’, ’वीर गाथा’, और ’विजया दशमी’ जैसी कवितायें संग्रह को समृद्ध कर रही हैं । इसी क्रम में ’कृष्णाष्टमी’ भी है । इसके अलावा ’हे सारथी, रोको इस रथ को’ में जीवन रथ को चलाने वाले परमेश्वर से विनम्र आग्रह है । ’वसन्त’ और ’होलॊ’ के स्मरण की कवितायें महत्वपूर्ण हैं ।
’ क्या यही हमारा हिन्दोस्तान है’ और श्रीराम का मनुज देह में आना एक अत्यन्त विचारणीय विषयों पर आधारित कवितायें भी अपना विशेष महत्व रखती हैं । ’भगवान महावीर ’ पर काव्य पुस्तिका का समापन अपने आप में चरम पर आधारित अवधारणा है ।
डा० श्रीमती तारा सिंह का यह काव्य संकलन पठनीय तो है ही साहित्य के लिए भी एक उपलब्धि है । आवरण पृष्ठ भावपूर्ण है । छपाई सुंदर और मूल्य भी उचित है ।
आलोच्य पुस्तक : ’ सांझ का सूरज’ समीक्षक
रचनाकार : डा० श्रीमती तारा सिंह श्री कृष्ण मित्र
प्रकाशक : मीनाक्षी प्रकाशन शकरपुर,३२/२बी०, वरिष्ठ कवि व पत्रकार
गली नं० – २, दिल्ली – ११००९२ १०२, राकेश मार्ग,गाजियाबाद
प्राप्ति स्थान : १५०२ सी क्वीन हेरिटेज़,पाम बीच रोड,
सानपाड़ा,प्लाट-६,से०-१८,नवी मुम्बई-४००७०५
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