एक खिलौना चाहिये
वह्नि , बाढ़ , उल्का , झंझाके भू पर
आत्मा न्योछावरहै , रक्तमांसपर
जीवनकाप्रासाद रहे गौरवमय
सबके हृदय में, आशा औरअभिलाषा
का नामहीन अभिशापित विहग,मन के स्वर्ग
लोककी नीव हिलाने , चिल्लाता रहता
कहता जहाँआदमी कामूल्य केवल
मुट्ठीभर राख , क्याहोगा वहाँ जीकर
इसे शांतकर रखने , भुलायेरखने
सोने -चाँदी का न सही ,माटी का हीहो
जी बहलाने केलिये कुछतोचाहिये
जिसे अपना कह सके ऐसा खिलौना चाहिये
केवलशरीर को खिला -पिलाकर
पालनेसे कुछनहींहोता
क्षुधितप्राण को वक्षसे अधिक
नयन का क्षीर चाहिये
तमसागर में लौ की कम्पित तरी
जो बही जा रही,उसे किनारा चाहिये
जहाँ बैठकर मनुज निज मन के
रहस्य कोखोल सके , उस
अगोचरकी सत्ता को छू सके
जोधरा पर रखकर, मनुज को
खुदरहने गगन में चला गया
उसके संग निभेगा कैसे, दोनों के
बीचएक सूत्रधार तो चाहिये
सोने-चाँदी का न सही,कागज का
हीहो , एक खिलौनाचाहिये
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