Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

इसे न मैं बेचती, न ही लगाती उधार

 

इसे न मैं बेचतीन ही लगाती उधार



मेरी स्मृति के गृह मे रखकर,अपनी सुधि का सज्जित तार 

खोलकर मेरे अन्तःपुर का दुख-द्वार,कहाँ गये मेरे सुकुमार

सुनकर घोर वज्र का हुंकार मैं काँप उठती हूँ बार -बार 

हँसता मुझ पर नयन  नीर ,सर उठाकर चलता तिमिर 

क्यों छोड़कर चले गए तुम मेरे प्रेम सुरभि का कारागार 


वेदना से भरा यह संसार भैरव गर्जन करता बार -बार 

शून्य से टकराकर आती मेरी करुण पीड़ा की पुकार 

जमाने की वाणी में होती वाण जिह्वा में होती तेज धार 

तटिनी करती तरणी संग छल कैसे होगी मेरी नैया पार 

तुम्हारी प्यास गाती तीव्र विराग ,करती मेरे संग प्रतिघात 

सिंधु अनल की आँच पाकर ,पिघल-पिघलकर बाहर आती

मेरे पलकों पर झूलती दिखलाती अपना अनंत प्यार


लगता मेरे हृदय -  शोणित का निर्माण वेदना से हुआ है 

तभी तो मेरी आँखें लगातींअश्रु का हाट

जीवन की प्याली में करुणा की लाली बेचती,प्रति रोम में 

पालती जग का अभिशाप,ये थोड़े से निधियाँ हैं मेरे पास 

श्वास -श्वास खोकर जिसका करती हूँ  मैं व्यापार

मगर न नगद लगाती  ,   न ही देती उधार

सिहरे स्पंदन में देकर भावों का आकार

पीत -पल्लवों में सुनती हूँ जब तुम्हारी पदध्वनि

दर्पमय हो जाता मेरा अणु-अणु,    देखती

हूँ तब मैं उसमें तुम्हारा सुंदर मुखड़ा निहार 





मेरे यौवन के वसंत थे तुम मेरे प्राणों के थे तुम चिर संगी

भूमि  से  आकाश  तक  संग  चलने काकीथी हमने संधि

झरनों  के  कल - कल संग मिलाते थे जबकलकंठ हम दोनों 

तबआनंद की प्रतिध्वनियाँ,जीवन दिगंत के अम्बर पर जाकर थीं

गुंजती ,भविष्य की स्मृति की रेखा को कराता था कुसुमों के 

चितवन से परिचय  , इच्छा  को दर्पण में रखता था संचित   


आज उर का बाँध तोड़कर स्वर स्रोतों से होकर 

कल -कल कर छल -छलकर बहे जा रहे हैं

वह्निकुंड से दाह्यमान होकर मेरे विकल प्राण 

नित ज्वाला से खेल खेलता,फिर भी होता नहीं श्रांत


Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ