Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

इस कलि को सावन ने मुरझाया है

 

इस को सावन ने मुरझाया है


सृष्टि के आरंभ होते कितना समय बीत गया, किन्तु दामोदर जैसे अभागों का तक़दीर नहीं बदला | पीढ़ी दर पीढ़ी, जानवरों को पालकर, उन्हें तथा उनके दूध बेचकर अपनी जीविका चलाने वाले दामोदर,के गाँव के आस-पास कोई दूकान-हाट नहीं था, जिसके कारण उन्हें घरेलू सामान खरीदने दूर हाट जाना पड़ता था | इसके लिए तैयारी आठ दिन पहले से ही, पत्नी- राजो से पूछकर करना पड़ता था |  उनके दो संतान थे; एक बेटा, एक बेटी | बेटी बेला, अपने माता-पिता की बेहद प्यारी थी , मगर इतने लोगों के नियमित व्यय के लिए धन पर्याप्त नहीं था | मगर बेला पर अपने आनंद की छाया, और स्नेह की सुरभि भरपूर लुटाया करते थे | दामोदर के गाँव के बगल की बस्ती में एक पाठशाला थी , जहाँ बेला नित स्कूल जाया करती थी | बेला की सुन्दरता देख, लोग दामोदर जी से कहते थे --- तुम्हारी बेटी का मुखमंडल, सूर्य बिम्ब की रंगीली किरणों जैसी अपूर्वता का अनुभव कराता है | ईश्वर करे, ये सदा ही इसी तरह मुस्कुराती रहे | 

तब दामोदर जी कहते थे ---- बेटी कितनी ही सुंदर क्यों न हो, आजकल के युग में, पिता के लिए, अभिशाप है , बेटी | वो ज़माना चला गया , जब रूप और गुण देखे जाते थे | अब, पैसे देखे जाते हैं , जो कि मेरे पास नहीं है | जिस दिन बेला ने जनम लिया, उसी दिन से उसकी शादी , मेरे गंभीर विचार का विषय बनकर, मुझे व्यग्र किये रहती है |

तभी चिंता की निस्तब्धता को भंग करती हुई, बाबू-बाबू पुकारती बेला, दामोदर जी के सामने आकर खड़ी हो गई | पिता की तमिस्रा की गंभीरता, क्षण भर के लिये बेला को डरा दिया | वह जिज्ञासा की नजर से पिता की ओर देखती हुई पूछी ---बाबू ! क्या हो गया तुमको, तुम्हारा स्नेह-फूलों से लदा ह्रदय, मंद मारुत से विकंपित क्यों हो रहा है ? 

बेला की आवाज सुनते ही, दामोदर का मुख-मंडल सहसा वनलता -सा खिल उठा और आनंद से अधीर हो पूछा ---- बेटा ! आप आज स्कूल नहीं गए, क्यों ? 

बेला, कुछ न बोलकर, पिता की हिमगिरी गोद में, अपना सर रखकर लेट गई , और पिता, बेला के बिखरे हुए बालों को संभालकर , उन्हें बार-बार हटा देते थे |

पता नहीं , एक पिता उस नन्हीं जान के बालों में क्या खोज रहे थे ? तभी उनके  ह्रदय-नदी के शीतल जल का स्रोत, एक स्वच्छ सोता बन आँखों से अविरल बहने लगा | जिसे देख बेला घबडाकर, उठकर बैठ गई , और रोती हुई पूछी ---बाबू ! तुमको किसने मारा, जो तुम रो रहे हो ? मुझे उसका नाम बताओ; मैं भी उसे मारूँगी | 

बेला की बात सुनकर, दामोदर, को ऐसा प्रभुदित हुआ, मानो सारे जगत का सुख मिल गया | उन्होंने अपनी आँखों के आँसू पोछते हुए कहा---- बेटा ! आज हाट का दिन है| मैं हाट जा रहा हूँ , आप के लिए भी कुछ लाना है, तो कहिये |

बेला, तपाक से बोल पड़ी-----एक काठ की गुडिया, और उसके कुछ कपड़े | 

पिता दामोदर बोले ---- ठीक है, अब तुम माँ के पास जाओ , मैं तुम्हारी गुडिया लेकर आता हूँ | 

दामोदर जी ,दो कदम ही आगे बढे थे कि बेला ने पुकारा --- बाबू रुको, और दौड़कर , पिताजी के टांगों से लिपटकर कही---बाबू, साथ में एक लेमन-चूस, और रिबन ( बाल बाँधने के लिये ) भी लेते आना |

दामोदर जी , हाथ का इशारा कर बोले ----ठीक है बेटा , सब ले आऊँगा | अब आप माँ के पास जाइये |

बेला, आनंदित हो दौड़ती हुई, चित्त में उत्साह की तरंगें लिए माँ के पास चली गई , और बोली---- माँ, पिताजी बाजार से कब लौटेंगे ?

माँ ( शोभा ) बोली---जब सब कुछ खरीदा हो जायगा, तब लौट आयेंगे | मगर हाँ, जब बाबू आयेंगे, तब आप उन्हें परेशान नहीं करेंगी , बल्कि बाबू के बगल में चुपचाप बैठे रहेंगी | जब वे स्थिर होंगे, तब खुद से आपको, आपके सभी सामान निकालकर देंगे , ठीक है बेटा |

बेला दृढ़चित्त हो बोली--- ठीक है माँ !

          हाट से लौटते दामोदर जी को साँझ हो गई| ठंढ का समय था, बेला अपने पलंग पर चादर ओढ़कर पिता का इंतजार करती सो गई | दामोदर जी, हाट से लौटकर , इधर-उधर नजर दौडाये | बेला को कहीं न पाकर, पत्नी शोभा से पूछे --- बेला नजर नहीं आ रही है , कहाँ है ?

शोभा व्यंग्य करती हुई बोली ----- ससुराल चली गई | अब बेला, तुमसे नहीं मिलेगी |

पत्नी की बातें सुनकर , दामोदर अपनी खद्दरधारी झोला , कंधे से उतारकर नीचे रखते हुए बोले ---  दूसरे के घर जाने के लिए ही तो बेला बेटी बनकर हमारे  घर जनम ली है , पर इस समय वो कहाँ है ?

शोभा मुस्कुराती हुई बोली , तुम्हारा इंतजार करते सो गई, देखो अपने कमरे में है | दामोदर झटपट बेला के कमरे में गए, देखे--- बेला सो रही है, उसके बाल ललाट पर बिखरे हुए हैं, और अधरों पर एक मोहिनी मुस्कान खेल रही है | उन्होंने बेला को गोद में उठाकर, उसके मुखमंडल को चूमते हुए बोले --- बेटा ! आँखें खोलो, देखो तुम्हारा बाबू, तुम्हारे लिए हाट से क्या-क्या खरीदकर लाये हैं ? बेला गाढ़ी नींद में थी | उसने एक पल के लिये आँखें खोलीं और कही ---- ठीक है बाबू, इन्हें माँ के पास रख दो , बोलकर फिर सो गई | 

                   खेलते-दौड़ते कब बेला के बचपन में जवानी ने दखल दे दिया, वह खुद भी नहीं जान पाई | रात के नौ बज चुके थे, आकाश पर तारे छिटक रहे थे | बेला, छत पर बैठी, तारों को निहारती मन ही मन सोच रही थी --- ये देखने में कितने चमकीले हैं , पर दूर हैं | क्या कोई वहाँ तक पहुँच सकता है ? क्या मेरी आशाएँ भी इन्हीं नक्षत्रों की भाँति हैं ? इतने में, माँ ने उसे पुकारा ; बेला चौंक पड़ी , बोली ----हाँ माँ , बोलो क्या बात है ? 

माँ शोभा ने पूछा ---- बेटा ! अँधेरे में बैठकर क्या कर रही हो ?

बेला---- शर्माती हुई बोली, कुछ नहीं माँ, मैं तारों को देख रही थी | ये कितने सुंदर दीखते हैं , तुम भी देखो |

बेला की बात सुनकर, माँ शोभा के दिल में बरछी सी लग गई | धीरज धर कर बोली ------ अब तारे गिनने के समय नहीं बचे हैं, बेटा | अब तो उस अतिथि के स्वागत में लग जाना है , जो आठ दिन बाद ही हमारे घर आने वाले हैं | बेला भी तो यही चाहती थी कि कब वह दिन आयेगा, जब मैं उनका दर्शन पाऊँगी | जब वे एक बार “बेला” कहकर पुकारेंगे | उनकी अमृतवाणी से मेरा श्रवण तृप्त हो जायगा | उस दिन के ध्यान से उसका ह्रदय खिल उठा |

            आखिर वह शुभ दिन आ गया, जिसकी ओर दिन-रात उसकी आँखें लगी हुई थीं , बेला , एक नई-नवेली बहू बनकर, आशाओं का शृंगार किये, अपने पति के घर चली गई | जिसे वह देवता का मंदिर समझकर सदा अपनी आँखों के नीर से धोती आ रही थी , रात्रि भली-भाँति आद्र हो चुकी थी | बेला, रजनीकांत (पति) के आने की प्रतीक्षा में चौकठ पर कान धरे कब सो गई ? जब उठी तो सबेरा हो चुका था , सूरज निकल चुका था | उसने कमरे से बाहर झाँककर देखा , तो पति रजनीकांत, अपने माँ-बाप के साथ बैठकर नास्ता कर रहे थे | यह देखकर वह टूट गई | आज के पहले बेला की कभी ऐसी नैराश्य, पीड़ित और छिन्नहृदया नहीं हुई थी | जो ह्रदय अठारह वर्षों तक आशाओं का आवास रहा, आज घरौंदे की भाँति ढहकर मिट्टी में मिल गया | 

             वह नित आते-जाते आँगन में रजनीकांत को अपने भाई-बहनों के साथ गप्पे लड़ाते देखती, पर आँखें धरती की ओर झुकाए रखती , ज्यों जलपूर्ण पात्र तनिक हिलाने से भी छलक जाता है , त्यों बीते रात की घटनाओं को याद कर उसकी आँखों में अश्रु छलक पड़ते थे | वह कभी सोची भी नहीं थी कि शादी के बाद वियोगिनी और सन्यासिनी बन जीयेगी |

            भविष्य की असाध्य चिंता और जलन, ने उसे और भी घुला दिया | वह मन ही मन सोचती, नहीं मालूम आगे भाग्य में और क्या-क्या लिखा है ? क्या मेरे शरीर के प्राण इसी दुष्कृत मनुष्य के संग जीवन व्यतीत करेगा ? धीरे-धीरे बेला की छ: महीने में ही ऐसी दशा हो गई, कि अब तो उसे अपना मन दुखाने में मजा आने लगा, कमजोरी इतनी कि चारपाई पर से उठना-बैठना कठिन हो गया | आखिर एक दिन उसने तय किया, और अपने पिता के घर बिना बुलाये लौट आई | अपनी खिलखिलाती कलेजे के टुकड़े को , सूखी पत्तियों की तरह लडखडाती गिरती देखकर , पिता दामोदर, बेसुध-सा फूट-फूट कर रोने लगे और अपने कलेजे पर पत्थर रखकर, उस शिष्टता के मूरत से पूछे--- बेटा, तुम्हारा यह हाल किसने किया है ?

बेला, चुपचाप खड़ी , कपोल अश्रु से भींगे, लम्बी-लम्बी सिसकियाँ ले रही थी | जैसे क्षितिज के अथाह विस्तार में उड़ने वाली पक्षी की बोली , प्रतिक्षण मध्यम होती जाती है, यहाँ तक कि उसके शब्द का ध्यान-मात्र शेष रह जाता है ; उसी तरह बेला की बोली धीमी होते-होते केवल साँय साँय रह गई : पिता देखता रहा,  कलि मुरझ गई |

दुःख होता है, जो सावन, अग्नि, वायु, पृथ्वी, आकाश, और पानी को साक्षी रखकर, एक अर्धविकसित कलि को खिलाये रखने का शपथ लिया था; उसी ने उसे अपनी बेरुखी के शोले में जलाकर राख कर दिया | 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ