जीवन-मृत्यु
बंधन विहीन परिवर्तन की इस वसुधा पर
केवल मनुज ही नहीं, इसके घेरे में तृण-
तरु, रवि-शशि-तारे, पहाड़, सागर, सभी आते हैं
तभी तो वसुधा रूप बदलकर कभी जलधि में
उदधि, मरु में,पहाड़ नजर आते. है
निज उद्गम का मुख बंदकर तृषा-तृप्ति
में खौलता प्राण, जीवन संग आखिर कब तक
रह सकता है, ज्यों पावक में गलकर स्वर्ण
नया रूप को पाता है, त्यों मरण के
रंध्र-रंध्र से लिपटे कुंजित प्रकाश के आलिंगन
को पाकर मनुज नया जनम लेता है
जीवन नश्वर है, और मृत्यु अमर है
जीवन ही कल मृत्यु बनेगा
जीवन और मृत्यु के बीच सिर्फ भय की
एक पतली तिमिर रेखा है, जो प्राण चेतना
ज्वार से भरी, जीवन-तरी को
सृजन गुहा के द्वार तक ले जाती है
जिस श्मशान का नाम, हम अपनी
जिह्वा पर लाने तक से डरते हैं
जीवन का स्रोत यहीं से चलता है
यही है वह पुण्यभूमि, जहाँ पहुँचकर
मनुज आधि-व्याधि बहु रोग से छूटकर
स्थूल देह पर विजय पाता है
झंझा-प्रवाह से निकला यह जीवन
पंच-तत्वों से बना है, जिसमें विकल
परमाणु-पुंज अनल, क्षितिज और
मृत्ति संग स्फुर्लिंग है भरा हुआ
जिसका एक दिन क्षय होना निश्चित है
तभी तो नर्तन उन्मुक्त विश्व का स्पंदन
द्रुत गति से चलकर, अपने ही पुर्नावर्तन में
लय होने चला जा रहा है, मिटता देह है
आत्मा नहीं मिटर्ती, मगर मिटने और बनने के
बीच जो क्षण होते हैं, उसे हम मृत्यु कहते हैं
जो विनाशों में भी चिर स्थिर, मंगलमय है
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