जहाँ तप रहे, व्योम भूतल
जहाँ पागल प्रभंजन दौड़ रहा
वर्षा अग्नि के, ज्वलित कणों को लेकर
भू की छाती दहक रही सूख जा रहा
सागर जल तरल, के ताप को पी-पीकर
मूर्च्छित है दूर्वांचल, तप रहे व्योम भूतल
ऐसे में तुम्हारी तृषित आँखें किसे ढूँढ़ रही
प्रियवर ! इस क्षितिज से उस क्षितिज तक
ममता का स्वर्णिम प्रकाश लेकर
पिछले जनम का कौन सा विषमय
किस चित्रपट पर, अब भी है जीवित
जिसके लिए तुम दाँतों से अधर दबाकर
आँखों में अश्रु सागर को रोककर
तिमिरांकित क्षितिज सी रहती हो चिंतित
किस अतीत का खींचकर ,रंगमय रूपमय कोमल तसवीर
सुनाना चाहती हो तुम उसे, अपने हृदय गर्जन की मजीर
किसके लिए रखती हो तुम, शत नयनों का पलक पसार
किसके स्वागत में,रातों को जागता तुम्हारा,रोम सुकुमार
तुम्हारी आँखों से बह रहे अश्रुधारा में, डूबी जा रही
दिशि – दिशि नभ में भरती जा रही उदासी, तुम्हारे
दुख के घने कोहरे से भू – नभ होता जा रहा एकाकार
देखो, अंतर की त्रपा – त्रस्त छाया से बाहर आकर
कैसे उषा जीत रही है तिमिर को, मचल रही
पर्ण – पर्ण पर लहर –लहर पर , तृण –तृण पर
बिखर रही है भू चरणों पर,शत स्नेहोच्छ्वासित होकर
केवल आत्म पीड़न से उन्मूलित वाहिका नहीं सजती
न ही अगम आनंद में डूबकर किसी का
तृषित शत –चित पाया पूर्ति, स्वप्न जाल है
धरती का अंचल, जीवन शोभा का मनता नहीं
यहाँ कोई उत्सव, झरते केवल दुख झरझर
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY