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Dr. Srimati Tara Singh
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जीवन – मृत्यु

 

 

डा० श्रीमती तारा सिंह

 

लगभग सभी धर्मों के ग्यानी मुनियों का मृत्यु के परिपेक्ष में एक सम विचार है । आत्मा का अग्यातवास पर जाना मृत्यु है ,और क्षणिक मात्र, जीवनवास है । मिटता शरीर है, आत्मा नहीं मिटती है । वह तो जिंदगी के उठा-पटक से थककर आराम करने के लिए, उस चैतन्य जगत में चली जाती है, जहाँ पिछले विकास और भावी आवश्यकताओं के अनुसार प्रकृति की वैध सामग्री में से उसके लिए मन,प्राण और शरीर का पुन: निर्माण किया जाता है । शास्त्र कहता है, ’मनुष्य के अंदर चेतना के बहुत से स्तर हैं और हर स्तर का अपना जीवन होता है । जब तक शरीर रहता है, वे सभी रहते हैं । सबों की सत्ता एक होती है । लेकिन कुछ सत्ताएँ भिन्न –भिन्न स्तरों पर होती हैं , जिसे हम क्षणिक सत्ता कहते हैं । इसके अलावा भी कुछ मध्यस्थ सत्ताएँ होती हैं, वे हैं---- इच्छा सत्ता और दूसरा आवेग सत्ता, जो प्राणिक सत्ता पर अपना जोर डालते रहते हैं । जब मनुष्य शरीर छोड़ने लगता है, तब ये सत्ताएँ बिखरने लगती हैं । लेकिन योगी,पुरुष योग द्वारा ,अपनी सत्ताओं को भागवत केन्द्र के चारो ओर इकट्ठा कर सभी सत्ताओं को एक साथ बाँधने में सफ़ल रहते हैं; यूँ कहिये, वे सभी सत्ताओं को अंतिम साँस तक एक साथ बाँधे रखते हैं । इससे उनके देहावसान के समय,ये सभी सत्ताएँ बिखर नहीं पातीं बल्कि सभी अपने-अपने क्षेत्र में जाकर मिल जाती हैं । स्वतंत्र रूप से सभी सताएँ अपनी-अपनी पूर्ति के लिए दौड़ नहीं लगा पाती हैं । लेकिन जो इन्हें एक साथ बाँध नहीं पाते, उनकी प्राण सत्ता अपने आप को अलग चरितार्थ करने में लगी रहती है । जैसे किसी कंजूस की आत्मा मरते वक्त भी धन से चिपकी रहती है । वह सोचता है, मेरे बाद मेरे धन का क्या होगा ? कोई हड़प तो नहीं लेगा ? इसलिए रोग-शोक रहित होकर भी वह जीवन के अंतिम साँस तक दुखी जीता है । लेकिन गुणी मुनियों के साथ ऐसा नहीं होता । उनकी आत्मा को भौतिक सत्ता नहीं सताती, इसलिए मृत्यु तक सुखी जीते हैं ।

 

 


हमारा शास्त्र कहता है--- रूप – सत्ता,आदमी के मरणोपरांत भी रूप की आत्मा बन जिंदी रहती है । केवल जिंदी ही नहीं रहती,सचेतन भी होती है--जो कि आठ से तेरह दिनों तक रहती है ,फ़िर विलीन हो जाती है । कुछ लोगों का मानना है, मरणोपरांत मनुज विधाता के अंतिम निर्णय तक सुप्तावस्था में पड़ा रहता है । उसके बाद ,उसे स्वर्ग या नरक में भेज दिया जाता है । कुछ लोगों का यह मानना है कि मृत्यु के तुरंत बाद व्यक्ति को शाश्वत गंतव्य स्थान पर भेज दिया जाता है । वहाँ उनकी आत्मा पुनर्जीवन की प्रतीक्षा में स्थायी रूप से तब तक रहती है, जब तक वह पुन: शरीर नहीं पा जाती । जीसू क्राइस्ट के अनुयायियों का मानना है, शरीर को छोड़कर ईश्वर के घर जाने की प्रक्रिया मृत्यु है । इससे
यह पता चलता है कि क्राइस्ट के अनुयायियों के अनुसार आदमी मृत्यु के उपरांत ही क्राइस्ट के पास चला जाता है ।
अलग-अलग अनुयायियों के अलग-अलग मत के बावजूद , सब का निचोड़ एक है । वह यह है कि मिटता तन है, तन के भीतर रहनेवाली आत्मा नहीं मिटती ; वह अमर है । आत्मा को अग्नि जला नहीं पाती,पानी भिंगो नहीं पाता, बंधन बाँध नहीं पाता; वह स्वतंत्र है । जैसा कि गीता में भागवान श्रीकृष्ण ने भी कहा है ----

 

 


नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक: ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत: ॥



आत्मा को ब्रह्म-रूप में स्वीकार करने की विचार-धारा वैदिक एवं उपनिषद युग से मिलती है ; ’प्रग्याने-ब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि तत्वमसि ,अयमात्मा ’ जैसे सूत्र वाक्य इसके प्रमाण हैं । मगर सूत्र-काल में,आत्मा को दो भागों में कर दिया गया ; जीवात्मा एवं परमात्मा,और परमात्मा का भेद्तात्विक नहीं है, भाषिक है ।

 


मगर, कुछ भाष्यकारों के अनुसार,आत्मा रचना है और परमात्मा रचयिता । इस आधार से दोनों का रिश्ता पिता-पुत्र का हो जाता है , इसलिए दोनों के गुण भी एक समान हैं । दोनों ही ध्यान-स्वरूप,प्रेम-स्वरूप, पवित्रता-स्वरूप, शांत-स्वरूप, सुख-स्वरूप, आनन्द स्वरूप, एवं शक्ति-स्वरूप हैं । श्री भगवत गीता में, आत्मा को 84 जनम उसके कर्मों के अनुसार मिलते हैं । जो आत्मा पिछले जन्मों में श्रेष्ठ कार्य की होती है,उसको सतयुग में 8 जन्म, त्रेता में 12 , द्वापर में 21 और कलयुग मे 42 जनम होते हैं । पाणीणि के अनुसार , तप का अर्थ है आलोचना; अर्थात किसी वस्तु को पहली बार देखने पर जब आत्मविश्वास न हो ,तब उस पर विचार करना; यही तपस्या है । पदार्थ से जीवन, जीवन से मन और मन से बुद्धि का एक निश्चित क्रम है, इसके बाद जाकर आत्म-शांति मिलती है , जिसे परम-आनंद कहा गया है ।

 


आत्मा पाँच तत्व के संयोग से शरीर धारण करती है, और इसके मिलाप में परमात्मा की आवश्यकता होती है । यह सम्पूर्ण जीवात्मा, परमात्मा की ही अभिव्यंजना है,बाकी सब मिथ्या है, भ्रम है, स्वप्न है; इसलिए ईश्वर के बताये गये रास्ते पे चलना ही ईश्वर की उपासना मानी जाती है । ऐसे भी ईश्वर की उपासना,मनुष्य का स्वाभाविक धर्म है ; जब तक नदियाँ समुद्र से जा नहीं मिलतीं, तब तक वह छटपटाती रहती हैं । ठीक उसी प्रकार आत्मा जब तक परमात्मा से नहीं मिलती, बेचैन रहती है । और जब आत्मा देहाध्यास का परित्याग कर देती है, तब वह शिव स्वरूप हो जाती है । उसकी शक्तियाँ विस्तीर्ण हो अनंत में लीन हो जाती हैं । पवित्र कुरान में है यह जीवन परलोक के लिए आजमाइश है, और दुनिया एक परीक्षा-स्थल । कहते हैं, इन्सान के अच्छे-बुरे कर्मों का फ़ल परलोक में मिलता है; भले ही उसके किये का एक भाग फ़ल इस दुनिया में मिल जाये । एक चोर,या बलात्कारी भले ही इस दुनिया से बच निकले, लेकिन वहाँ उसके कर्मों का फ़ल अवश्य मिलता है ।
ऐसा मानना है, एक बार जीवन-मृत्यु का चक्र शुरू होता है तो यह तब तक चलता रहता है जब तक कि इन्हें मुक्ति नहीं मिल जाती,और मुक्ति का एक ही उपाय है । वह है, जब तक इस दुनिया में हैं, नेक कार्य में लगे रहें | इसलिए कि जीवन का अंत मृत्यु नहीं है , जीवन चलता रहता है, अनन्त काल तक । गरुड़-पुराण में यमलोक के बारे में लिखा है,” यमपुरी के बाहर एक विशाल घेरा है । यह घेरा शनि ग्रह के चारो ओर कोहरे की बेल्ट में दिखाई पड़ता है । इससे यह संकेत मिलता है,कि वहाँ के रहनेवालों का शरीर प्रकाश पुंज भर होता है । इसलिए जीवात्मा हमें किरणों के रूप में दृष्टिगत होती है । गरुड़ – पुराण के मुताबिक जीव की मृत्योपरांत, यमपुरी या परलोक यात्रा सत्य जान पड़ती है ।

 


भारतीय हिन्दू संस्कृति में, आत्मा की शांति के लिए भिन्न-भिन्न उपाय किये जाते हैं; जिसमें श्राद्ध, तर्पण आदि । इसके पश्चात ,आत्मा को पूर्ण शांति मिलती है और ,वह पुण्यात्मा इसके लिए अपने आत्मज को शुभ- आशीर्वाद देती है । अगर विधिपूर्वक यह कर्मकांड नहीं किया जाय तो आत्मा सदैव सूक्ष्म रूप में विचरण करती रहती है ,उसे मोक्ष नहीं मिलती है । इस तरह दुनिया की सभी सभ्यताओं से लेकर आज के आधुनिक समाज में हर जगह आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार किया गया है । कहा गया है, आत्मा कभी मरती नहीं, मरता शरीर है । आत्मा तो मृत्योपरांत भी पृथ्वीलोक में विद्यमान रहती है ।

 



जीवन जितना प्यारा है, मृत्यु उतनी ही आवश्यक है । मृत्यु , यानि अपना थकान मिटाने के लिए माँ की गोद में बालक का सो जाना । मृत्यु यानि उष्मा—उर्जा, ताजगी , स्फ़ूर्ति भरा फ़िर से एक नये तन को पाने जाना । इसलिए जाने वाले का हमें शोक नहीं मनाना चाहिये ; बल्कि उनके फ़िर से लौट आने की मंगलमय कामना करनी चाहिये । कई बार देखा गया है, कुछ बुजुर्ग अपने मृत्यु से सम्बन्धित कुछ ऐसी बाते करते हैं, जैसे उन्हें मृत्यु का पूर्वाभास हो गया हो । लेकिन घर के लोग यह सोचकर कि बूढ़े हो चुके हैं ; दिमागी तौर पर बीमार हैं, इसी वजह से ये ऐसी बेबुनियाद की बातें करते हैं । लोग उनकी बातों को टाल जाते हैं, लेकिन जब उस व्यक्ति की मृत्यु हो जाती है और उनके द्वारा कही गई बातें सत्य होती हैं । तब लोग इस बात की चर्चा करते हैं,कि उनकी मृत्यु होगी, इसका पूर्वाभास इन्हें पहले से था । लेकिन इसको सुनने वाले इसे सत्य नहीं मानते ,वे तो यही सोचते हैं, अपने परिजन को महिमामंडित करने के लिए वे ऐसा बोल रहे हैं जिससे कि दुनिया, इनके रिश्तेदारों को गुणी मुनियों में गिने ।

 

 


इस तरह की एक घटना का जिक्र, मैं यहाँ कर रही हूँ । जब मेरे पिता, कैंसर रोग से पीड़ित हो शैय्यावान थे , तब की बात है । एक दिन उन्होंने, मुझे बुलाकर कहा,’ आज आश्विन की पूर्णिमा है । कार्तिक की अमावस्या से पहले मैं चला जाऊँगा । तुम एक काम करो, कार्तिक महीने में गाँव के लोग खेतीबारी में व्यस्त हो जायेंगे । मुझको श्मशान तक ले जाने में तुमलोगों को बड़ी मुश्किल आयेगी । तुम आज से चार-पाँच दिन बाद, शहर जाकर , कफ़न,धूप-दीप वगैरह ले आओ । अकेली जान उस समय क्या-क्या करोगी ? मैं पिताजी के मुँह पर हाथ रखते हुए कही ,’ पिताजी , आपको कुछ नहीं होगा ; आप ठीक हो जायेंगे । आप क्यों आलतू-फ़ालतू की बात अपने मन में लाते हैं ?’ पिताजी हँसते हुए कहे ---- तुम मेरे जाने की बात सोचकर, डर गई । अरे पगली, जो आया है, उसे जाना है । इसके लिए मन इतना दुखी मत करो । लेकिन हुआ वही, जो उन्होंने कहा था । पिताजी अमावस्या आने के चार दिन पहले अचानक हम सबको छोड़कर चले गये ।

 

 


ओशो इंटरनेशन फ़ाउन्डेशन का मन्तव्य है कि जब तक किसी व्यक्ति में , मृत्यु में उतरने का साहस नहीं होता है , तो व्यक्ति जिंदा रहकर भी मृत्यु में भटकता रहता है । मृत्यु को सामने खड़ा पाकर भी सोचता, मृत्यु है ही नहीं, तो मेरी मृत्यु होगी कैसे ? ऐसा विरोध लोग अग्यानतावश करते हैं । जो अध्यात्मवाद को पा चुके, वे इस तरह की बातें नहीं सोचते । इस तरह मृत्यु के लिए भिन्न- भिन्न धर्मों का अलग-अलग मन्तव्य है । लेकिन सौ बात की एक बात ; मृत्यु ,व्यक्ति की होती है; आत्मा की नहीं,आत्मा अमर है । भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से युद्ध के मैदान में, अपनों के मारे जाने से चिंतित देख अर्जुन से कहा है -----

 


अछेद्योsयमचिन्तयोsयमविकार्योsयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि ॥

 

अर्थात यह आत्मा अव्यक्त, अचिंत्य और विकाररहित कही जाती है । इससे हे अर्जुन ! इस आत्मा को उपयुक्त प्रकार से जानकर तेरा शोक करना उचित नहीं है । जनम उत्सव है और मृत्यु महामहोत्सव ।

 

 

 

 

डा० श्रीमती तारा सिंह

 

 

 

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