Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

झड़ते हैं पत्ते ,तो झड़ने दो

 

झड़ते हैं पत्ते ,तो झड़ने दो



ज्योत्सना  धौत  सागर , सौरभ  समीर

बादल पहाड़  ,  पक्षीसौरभ  जमीर

सब  हैं  उसकी  परिछाहीं,  सब  में  है

वही   समाया ,  सब   हैं  उसके  रूप

क्या सूरज क्या चाँद,क्या छाया क्या धूप


इसलिए झड़ते हैं पत्ते,तो झड़ने दो

तुम  क्यों  हो  रहे  इतने चिंतित

देखना उसके अंतर को अपने मौन 

स्पर्श  से  छूकर ,एक  दिन  वही

करेगा  उसको  फ़िर  से पल्लवित


उसी का ऐश्वर्य जीवन ज्वाल बन

मनुजके शिरा-शिरा में दौड़ रहा

आम्र  मौर  में  मदिरगंध, तरु

-तरुओं  पर  प्रवाल बन डोल रहा

भवजीवन  के निखिल प्रयोजन 

को, वही  करता पूरित, वही उजड़े

भव  कुसुमों  को  करेगा  कुंजित



तुम इसकी चिंता छोड़ो,मत सोचो इतना भी

मौन  नाश, विध्वंश, अंधेरा  को  धरा पर

किसने  लाया, यह  है  किसकी  है शक्ति

धू- धू कर   नाच   रहा अनस्तित्व 

परमव्योम  से  लटकरहे  कुहासे क्यों

शून्य से  है , इसकी  यह  कैसी  प्रीति


अंतरिक्ष  में  ज्योतिर्मान  ग्रह,  नक्षत्र

सिर  नीचाकिये ,किसकी  सत्ता को

स्वीकाररहे ,  क्याहै देवनीति

किसकी आग्या का पालन करने सरिता 

की  धाराएँ  जीवन  अनुभूति बिखरातीं


वह  जो  न  चाहे  तो, एक पत्ता भी न हिले

उसी  अरूप  का  रूप  लेकर ,साँसें हैं तरंगित

लहरों  के  पालनों  पर सागर को वही सुलाता

वही जीवन से लिपटी ज्वालाओं को शीतल कर

स्वर्ग  प्रीति  को  नयनों  मेंकरता विकसित


इसलिए  देख , दृश्य  जगत की करुणाद्र झाँकी

मत  पूछ, आगे  और  क्या-क्या  है बाकी,जहाँ

दुख- पीड़ा ,जीवन- मृत्यु  और वेदना के फ़ब्बारे 

छूट रहे हर क्षण,वहाँ की नम तो रहेगी ही माटी

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ