Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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जो ज्वलित उर में झंकृतियाँ भर सके

 

जो ज्वलित उर में झंकृतियाँ भर सके



ज्यों शिशिर बिंदु ,    रस सिंधु बहाता

गगनांगन से गिरकरधरा वक्ष पर 

त्यों तुम्हारे तन की अदेह गंध,मृदुल अंक धरकर 

मुझे नहलाती मेरे नीरव सपनों में आकर 

फूलों से सजाकर मुझको सुरपुर से बाहर ले जाती

कहतीमिलन की उत्कंठामेरे मन में है छाई

चलो चलकर मिलेंगेकिसी निर्जन  में जाकर 


जग भर की माधुरी जो अब तक मेरे अधरों पर 

संचित थीनर जगत की कुसुमित हरियाली बनकर 

कल्पना के आलिंगनकी तपन दाह को सह नसकी

कहने लगी ,    मैं उब चुकी हूँ नीरवता मेंजीने से

मेरे निराकार  मन की उमंग को अब रूप चाहिए 

जो मेरे प्रणय ज्वलित  उर में झंकृतियाँ भर कर 

मेरे हृदय केकोलाहल कर्कश निनाद को समेटकर 

अपने शांतिमयतिमिरांचल में ले जाकर

मुझे बचा सके प्रीति के निर्मम आघातों से


मेरा शोणित शमित कर सके अगर तुम्हारे विरह ताप को

तो  मैं भी समर्पण में ,  ग्रहण का सुनिहित भाव लिये आऊँगी

क्योंकि विरह की ज्वालाहृदय -मन दोनों को कर देती अशांत 

जिस सुरभि को पीकर तृप्त होना चाहता प्राण, उसके नहीं मिलने-

परवही छोड़ता चिनगारियाँजीवन को कर देताउदभ्रांत 








मैं भी  इस अदेह सुख का स्वागत करती थी दुरागत से

जीवन की संचित आकांक्षाओं  कोसुंदर  मूर्त रूप मिले

मैं  भी चाहती थीमगर हृदय खोलकर कैसे कहती तुमसे

द्विविधाग्रस्त,अंतरतम की प्यास,विकलता से लिपटी,बढती रही

मैं  उदधि की व्याकुल  लहरियाँ  सी  उठती गिरती रही

कल्पना  के उलझे कण को अलकों की डोरी में पिरोती रही

मगर शीतल  प्राण धधकता रहातृषा -तृप्ति के मिस से 

लालसा भरे यौवन के दिनकहीं पतझड़ में सूख न जाये

अपनी ही बनकर दीवार, मैं खड़ी रही चिंता से



अकस्मात तुम्हारे आने की आह्टपाकर मेरे ज्वालामय 

मन की आभा कुसुम कलेवर में बदल गई

आँखेंसांद्र   वन   के    समान हरीहोगईं अनल  वह  शक्ति 

थक – हारकर बैठ गई,जो  मेरी शोणित धारा में 

प्रज्वलित कर मेरे प्राणों को दौड़ाया करती थी

मेरे कुसुमितहृदय -वन को झुलसाकर स्थिर कर दी थी

वहाँ छाने लगी फिर से हरियाली,सूखे तरुमुसकुराने लगे

पल्लवों में छाने लगी फिर से लाली



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