प्राणों में लिये, वरदानों का प्रण
घोल अश्रु में ज्वाला कण
कौन है यह हठी पुजारन
निज भाग्य की झुलसी साँसों पर
हिमलोक बनाने को है ठानी
कहती, पीर की दीपित धुरी पर
घूम रहा सातों अम्बर
विरह ज्वाला की गीतों को सुनकर
लहराता,मरुवासी एकाकी में सागर
मैं भी तोड़ सीमा की प्रथाएँ सारी
अपने तप्त जीवन को सुधायुक्त
बनाने , नींद सागर से
सपनों का मोती ढ़ूँढ़ लायी
शायद मिल जाये, यहीं मेरा चितचोर
कहती मेरी अधखुली आँखों की कोर
ऐसे भी कब अणु का प्रयास नष्ट हुआ
मंगल क्षण में,चिर जागृत शिखा को
जो जलाकर गया, वह आज भी
कौंध विद्युत बन जल रहा
माना कि मेरी देह–मित्तियों के ऊपर
सुंदर ,सुकुमार त्वचा नहीं है बाकी
मगर पर्वत का नीरव प्रकाश पीकर
ज्यों झूमती बन की हरियाली
त्यों मैं अपने प्रियतम की चेतना के
उरों को निज लिप्सा से जगा रही
पंचाग्नि बीच जलता आया मनुज
हृदय व्याकुलता को आदर्श माना
सोचा देख, मनुज जीवन में लहरों
पर लहर ,आघातों पर आघात
एक दिन विधु, नियति से कहेगा
प्रलय जलधि में संगम को देख
मेरा हृदय कराह उठा,तुमने क्यों
मनुज ब्रह्माण्ड को अभिशप्त बनाया
मगर क्या उसे पता नहीं, स्वप्न
विहंगों का लेकर आज-तलक मूक
क्षितिज को पार कर न सका कोई
अधरों में अधर, नयन में दर्शन
की आग केवल हृदय में व्यथाएँ देतीं
वेदनाएँ उपजातीं नित नयी - नयी
माना कि कल्पना के सुमन वृत पर
आशा की अभिलाषा खिलती बड़ी-बड़ी
लेकिन उसके हरित कुंज की छाया
विरह की छोटी सी नदी को
पार कर सकी न कभी
वृथा सोच रही यह , नभ के
आँगन में बार, आशा का दीपक
तिमिर वन को पार कर जाऊँगी
देखूँगी जिसके लिए पीत-पात सी
झड़ गयी जवानी मेरी,उसके सम्मुख
मेरे जीवन का मोल क्या है, री
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