कलियुगी राम
वर्षों से दिल में एक अरमान था पल रहा कि, देवघर जाकर, बाबा भोले का दर्शन करूँ । उनके चरणों में अपनी श्रद्धा –सुमन अर्पित करूँ, लेकिन जिंदगी के भाग-दौड़ ने कभी ऐसा मौका नहीं दिया कि अपनी हसरतें पूरी कर सकूँ । अचानक एक दिन एक खत मिला; लिखा था, ’ हमारी संस्था (विवेकानंद शैक्षणिक, सांस्कृतिक एवं क्रीड़ा संस्थान, देवघर, झारखंड ) ’कमलारत्नम साहित्य सलिला’ के नाम पर आपको ’शताब्दी राष्ट्रीय शिखर सम्मान-पुरस्कार’ देना चाहती है । पढ़ने भर की देर थी, सच मानिये, मेरा जीवन एक नया उत्साह से चमक उठा । ऐसा जान पड़ा कि मैंने अपनी आकांक्षा की जीवन-यात्रा के लिए एक नये घोड़े पर सवार हो गई हूँ । अब देवघर जाने से मुझे कोई नहीं रोक सकता । मैं अपने पति डॉ० सिंह से बड़े गर्व के साथ कही --- ’बाबा ने मुझे बुलाया है; 30 जून को देवघर जाना है । वहाँ की संस्था , विवेकानंद शैक्षणिक, सांस्कृतिक एवं क्रीड़ा संस्थान से खत आया है,कि आप यहाँ आने की स्वीकृति भेजें’ । मेरे पति ,जो बचपन से, बाबा भोले के भक्त रहे हैं, मेरी ओर हसरत भरी निगाह से देखकर, पूछे—”क्या सच बोल रही हो’ ? मैंने कहा---”हाँ !, बिल्कुल सच, आप पतियाते क्यों नहीं ’? फ़िर वे बोले ---’ मेरी कसम खाओ !’ मैंने कहा ---”आपकी कसम’ । भजन भाव में लीन रहनेवाले , मेरे पतिदेव के हाव-भाव से ऐसा लगा, शायद वे भी मेरी तरह इस सुअवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे ।
समारोह 30 जून को दिन के 12 बजे होना था, अत: हमलोग 29 को देवघर पहुँच गये और सबसे पहले बाबा भोले के दर्शन के लिए निकल पड़े । वहाँ पहुँचकर, मैंने जो कुछ देखा, अपनी आँखों का धोखा लग रहा था । मैंने देखा, देश के कोने-कोने से भक्तवृंद अपने नैवेद्य-उपहार लिए बाबा भोले के चरणों में अर्पण करने लम्बी कतार बनाकर खड़े हैं । रत्न-खंड, स्वर्ण मुद्राएँ आदि बाबा के चरणों में गिर रही हैं । पुजारी, भक्तों को बाबा भोले के आशीर्वाद स्वरूप फ़ल-फ़ूल का प्रसाद दे रहे हैं । मैं भी प्रसाद स्वरूप बाबा का आशीर्वाद लेकर, उनके दरवार से सभास्थल की ओर लौट आई ।
रात में शयन आरती का समय था । मैंने सुन रखा था, शयन आरती में शामिल होना बड़े सौभाग्य की बात होती है । इसलिए मैं अपने पति के साथ, आरती में शामिल होने ठीक रात के नौ बजे पहुँच गई । आरती आरम्भ होने में कुछ ही समय बांकी था , सोची, यहाँ थोड़ा इधर-उधर घूम लूँ, जाने फ़िर कब आना हो । ऐसे भी उम्र के इस पीले पत्तियों को गिरने में देर कहाँ लगती है । मंदिर के पूरब की ओर गई,तो देखा,बाबा भोले की तरह एक और विशाल मंदिर हैं । लोगों ने बताया, यह पार्वती जी का मंदिर है , पश्चिम की ओर देखा,एक सिंह-द्वार था । उससे आगे बढ़ी , तो नाना देवी-देवताओं की छोटी- बड़ी अनेकों मंदिर थे । सबों में जाना संभव तो नहीं हुआ, कारण संस्था ने रात दश बजे से कवि-गोष्ठी का प्रबंध रखा था और मुझे उसमें शामिल होना था । इसलिए मैं बाबा के मुख्य द्रवार से लौटकर मंदिर- परिसर में चली आई । वहाँ देखा, मंदिर से भक्तगण बाहर निकल चुके हैं । पुजारी , आरती से पहले मंदिर में गिरे पत्ते-फ़ूल, सबों को हटाकर साफ़ कर चुके हैं । बाबा भोले के गले से रत्न-भूषण उतार,
उपहार के पैसे,स्वर्ण-रत्न अपनी सुरक्षा में रख लिये हैं और उसके बाद आरती शुरू हुई । भीतर आरती, बाहर घंटा बजने लगा , घंटे की आवाज दूर तक सुनाई पड़ रही थी । लोग घंटे की आवाज पर दौड़े चले आ रहे थे; पूरा का पूरा वातावरण शिवमय हो गया था ।
वहाँ से लौटकर जब मैं सभा-स्थल पहुँची, देखी, चाँदी का थाल लिये रजनी, बाबा भोले से दया की भिक्षा माँगने आ गई है । शिवगंगा की लहरियाँ बाबा का पैर चूमने, उठ-गिर रही हैं । सब मिलाकर ,प्रकृति की रमणीयता अद्भुत थी । अपने में और सर्वत्र फ़ैली हुई ,उस सौन्दर्य की विभूति को देखकर , सुदर्शन की तन्मयता ,उत्कंठा में बदल गई । इच्छा करने लगी, कि बस यहीं का बनकर रह जाऊँ । इतने में ,किसी ने आकर पूछा---वह किधर गया ? मैंने पूछा--- कौन ? तभी पीछे से आवाज आई-----
लक्ष्मण को ढ़ूँढ़ रहे कलियुग के श्रीराम
धरम, धुरंधर, नीति - निधान, सकल गुण
रवानी को चलिये ,चलकर करें प्रणाम
मैं अवाक थी; सोचकर कि यह महाशय सचमुच के कलियुगी राम हैं, या लोग मजाक कर रहे हैं । मैंने अपने पास बैठे एक बुजुर्ग साहित्यकार से पूछा--- ये चौपाई इनके सम्मानार्थ पढ़ी गई, या कृपानार्थ ।
बुजुर्ग मेरी बात पर हँस पड़े और बोले--- ’ ये महाशय ! मेरे ही गाँव के किशन हैं ; पेशे से एक इंजीनियर हैं । ये दो भाई हैं । छोटा भाई , खेती –गृहस्थी देखता है और किसी तरह अपने तथा अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी का जुगार कर पाता है । मैंने कहा---तो ये हुई इनके छोटे भाई की जीवन—गाथा, मगर लोग इन्हें कलियुगी राम क्यों कहते हैं ? उन्होंने मेरी तरफ़ देखकर कहा--- आप खुद उनसे पूछ लीजिये । मैं सकुचाती हुई उनके पास गई, और बोली--- नमस्ते जी ! उन्होंने भी बिना मेरा नाम-ठिकाना जाने, उत्तर में अपना सिर हिलाते हुए कहा--- नमस्ते ! मैं बोली—मैं आपसे ही मिलने आई थी । उन्होंने कहा---- बैठिये, कहिये क्या जानना चाहती हैं ?
मैंने कहा—कुछ नहीं, बस इतना कि लोग आपको कलियुगी राम क्यों कहते हैं ?
उन्होंने बड़ी सलज्जता के साथ कहा---ये उनलोगों का बड़प्पन है, नहीं तो कहाँ मैं और कहाँ राम !
मैंने फ़िर उनसे अनुरोध किया--- कृपया थोड़ा कुछ बता देते, तो मन पर जो बोझ था, वह उतर जाता ।
उन्होंने हँसते हुए कहा --- मेरे पास कोई ऐश्वर्य –दर्प नहीं है,लेकिन हाँ ऊपरवाले ने जो कुछ दिया है, मैं मानता हूँ, बहुत है । माँ-बाप दो बीघे जमीन और एक घर गाँव में छोड़ गये, वह भी मैंने अपने छोटे भाई ’सतना’ को दे दिया । मेरे पास बस नौकरी है और कुछ नहीं ।
तभी एक और मित्र वहाँ आ पहुँचे । वे हम दोनों की बातचीत के बीच की कड़ी बनते हुए बोले---बदले में बस अपनी बेटी की शादी के लिए कुछ मदद लिया ,और उन्होंने मदद भी किया ,करीब दो लाख रुपये देकर । मैंने पूछा--- इन्होंने अपने भाई को कितनी जमीन दी ?
तपाक से कलयुगी राम बोल पड़े --- मेरे पास जो था ,सब दे दिया ।
मैं उनकी ओर देखती हुई बोली—कितने जमीन थे ?
उन्होंने कहा--- दो बीघा, एक बीघा मेरा और एक बीघा उसका । घर में दो रूम थे; एक उसका,एक मेरा; लेकिन मैंने पूरा का पूरा उसके नाम कर दिया । मैं अपने छोटे भाई को नाम लेकर नहीं बुलाता, बल्कि बेटा कहता हूँ । वह भी मुझे पिता का दर्जा देता है ।
मैं आश्चर्यचकित थी, आजकल के युग में जहाँ सौ-दो सौ के लिए भाई, भाई का जान तक लेने से नहीं हिचकते , वहाँ ये महाशय, अपना सब कुछ अपने छोटे भाई के नाम लिख दिये । हाँ , ये सचमुच, कलियुगी राम हैं । अपना सब कुछ लुट जाने का जरा भी अफ़सोस, उनकी बातों में नहीं झलकता था, बल्कि अपने छोटे भाई के लिए, स्नेह में डूबे कोमल , मीठे बोल, आज भी बरकरार था ।
इतना सब जानने के बाद भी मेरे अन्त:करण में एक तूफ़ान उठ रहा था , जिसे बिना जाने मेरे लिए मुम्बई लौट आना शायद उम्र भर का पछतावा होता, इसलिए मैंने पूछ लिया – आजकल तो स्थायी सम्पत्ति का दाम बहुत होता है; एक बीघा जमीन, कम से कम पाँच लाख का होगा ?
बगल में बैठे मेरे साहित्यकार मित्र बोल पड़े ---- नहीं, नहीं , खेती की जमीन पहले पचास हजार रुपये बीघा था, अब एक लाख है ।
मैंने फ़िर पूछा—और घर ?
साहित्यकार मित्र बोले --- घर ,रखिये पचास हजार अर्थात इन्होंने डेढ़ लाख की सम्पत्ति अपने छोटे भाई को देकर, उससे बेटी की शादी में मदद के नाम पर दो लाख रुपये ले लिये ।
मैं सोचने लगी---क्या ?
उन्होंने कहा –हाँ !
मैं मुस्कुराती हुई बोली --- तो फ़िर आपलोग इन्हें कलियुगी राम क्यों कहते हैं ?
साहित्यकार बोले --- वो इसलिए कि त्रेता के राम, लक्ष्मण को सिर्फ़ राजपाट नहीं, खुद को भी दिये थे और ये कलियुगी राम, लक्ष्मण के पाई-पाई को बहला-फ़ुसलाकर अपने नाम कर लिये । इसलिए मैडम ! आप आगे और कुछ मत पूछिये, बस ल और द का खेल थोड़ा उलट गया है । ऐसे भी त्याग दो प्रकार के होते हैं । एक वह जो त्याग को आनंद मानते हैं, जिनकी आत्मा को त्याग में संतोष और पूर्णता का अनुभव होता है तथा जिनके त्याग में उदारता और सौजन्य है । दूसरा वह ,जो दिल-जले त्यागी होते हैं, जिनका त्याग अपनी परिस्थितियों से विद्रोह मात्र है , जो न्याय-पथ पर चलने के लिए,दुनिया से तावान लेते हैं । ऐसा त्यागी खुद तो जलता ही है, दूसरे को भी जलाता है । जानते हैं, आजकल के युग में ऐसे ही त्यागी अमर होते हैं, जिस प्रकार ये महाशय, राम के नाम से अमर हो गये ।
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