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कल्पना, मेरी जिंदगी

 

कल्पना, मेरी जिंदगी

                             ----- डा० श्रीमती तारा सिंह,नवी मुम्बई


             सोचा था, कल्पना के सहारे जी लूँगा । कोशिश भी की ,आधी उम्र जीया भी । मैं तो उसका हो गया,लेकिन वो मेरी बनकर न रह सकी । अभी आई, अभी चली गई । मेरे साथ इसी तरह रहने का नाटक करती रही , मगर कभी रही नहीं । सच कहता हूँ, उसके साथ कोई नहीं रह सकता । उसका सुंदर चेहरा मुझे कभी चैन से रहने नहीं दिया । पता नहीं क्यों, दोस्त ! लड़कियाँ मर्दों के दिल को खिलौना समझती हैं । जब तक खेला ,खेला ----  फ़िर ठुकरा दिया । व्यर्थ ही मैंने पिताजी की बातों में आकर कविता को छोड़ा । कविता अगर मेरे साथ होती, तो कल्पना मेरी जिंदगी में कभी नहीं आती ;क्योंकि एक म्यान में दो तलवार नहीं होता । अब तो वह मुझे भूल भी चुकी होगी, मैं भी लगभग भूल गया हूँ । मित्र ने सलाह दी, ’कोशिश करो; शायद लौटकर आ जाये ’ ।

 विजय ---   नहीं दोस्त ! कविता अपने सम्मान का बड़ा ध्यान रखती है ,बुलाने से नहीं आयेगी । आना होगा, तो खुद चली आयेगी ।

     तभी करीब से गुजर रही गीता, फ़टकार लगाती हुई, विजय के मित्र से कही,’ यह शायद किसी का नहीं हो सकता । मैं इसकी बचपन की महबूबा हूँ । इसने मुझे स्वयं पसंद किया था । इसके माँ-बाप को भी मैं पसंद थी । लेकिन कालेज की ऐसी हवा लगी,मुझे छोड़कर कविता को अपना लिया । फ़िर कविता को छोड़कर कल्पना के साथ रहने लगा । आज कल्पना को छोड़कर फ़िर कविता के लिए रो रहा है । मुझे नहीं लगता, कविता को अब इसके पास आना चाहिए । इसके लिए कल्पना ही ठीक रहेगी । जिंदगी भर उसे छूने तरसता रहेगा,लेकिन वह कभी इसकी बाँहों में नहीं आएगी 

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