माया के मोहक वन से बाहर निकलो
कैसे एक पल सुधा वृष्टि बीच
क्लांत मन जुड़ा पाये, उसकी सोचो
काँटों से सेवित है, मानवता का फ़ूल यहाँ
जग की पगडंडी पर सँभलकर चलना सीखो
छोड़ो रोना देखकर, जगत की अनित्यता
बाहर देखो कैसे, जीवन पतझड़ में जन –
मन की डाली पर, प्रज्वलित भूमि का
ज्योतिवाह बन , नव मधु की ज्वाला से
पल्लव – पल्लव में शोणित भरने
नव प्रभात के नभ में उठ, धरती के आनन
में बिछ,सौ–सौ रंगों में मुसकुरा रही सुंदरता
क्योंकि आज स्वर्गदूती, जगत जननी
माँ दुर्गा, जन मन को नव मानवता में
जागृत कराने, जीवन रण शंख फ़ूँकती
धरा पर स्वयं उतर आई हैं
आज माता की नव रात्रि पूजन है,लोग धूप–
दीप जलाकर,माँ के चरणो में प्रणति जता रहे हैं
क्षितिज का उर वातायन खुला देख
मन के भीतर मन नहीं समा रहा,पर्ण–पर्ण पर
लहर – लहर में आनंद लहरा रहा, धरती
स्वर्ग बनी जा रही है, नाच रहा मन अनंता
धरती से अम्बर तक बिखरी हुई हैं खुशियाँ
ऐसे में तुम्हारे प्राणों को प्लावित कर
उमड़ रही है कैसी वेदना, जो तुम्हारा
अंग – अंग शिशिर पल्लव–सा कंपित है
तुम्हारे संतप्त हृदय की पथरा गई है चेतना
है वह कैसा सपना, जो जीवन प्यास लपेटे
तुम्हारे अलकों के भीतर,अश्रु बना घूम रहा
प्रति क्षण उर में भर रही पीड़ा और तृष्णा
जानती हो , सृष्टि की आनंद अम्बुनिधि
इतना सुंदर , स्वर्ग – फ़ल सा क्यों है
क्योंकि यह निज शक्ति से तरंगित है
ज्यों वासी फ़ूलों में सुगंध नहीं रहती
कर अतीत को याद, जीवन तृप्ति नहीं मिलती
मिलती केवल, दुख ,पीड़ा, नैराश्य, व्याकुलता
इसलिए अतीत को भूलो, वर्तमान की सोचो
देखो कमल के शत पत्रों को शीतल पान कराने
हिम पर्वत से उतरकर, कैसे बह रही शीतलता
देव शाषित यह लोक, देवों पर है आश्रित
यहाँ मनुज कर्म, देवों से होता पोषित
इसलिए चलो चलकर हम, उस चन्द्रानन
को देखकर अपनी आँखें ठंढ़ी करें
जिस पर तीनों लोक हैं गर्वित, कहते हैं
यही सृष्टि की मालिनी है, जो मनुज
के कोरी तकदीर की रेखाओं में रंग भरती
पूर्ण स्वर्ग बनी रहे यह धरती, कैसे –कब
उषाओं के पथ से उतरेगा, पूषण का रथ
दिन, मुहूर्त ,क्षण ; यही तो निश्चित करती
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