दुनिया कहती, रचती रहो ,रचती रहो
जोड़ती रहो जीवन की बिखरी कड़ियाँ
पता नहीं, कब जीवन के मधुमय वन में
पतझड़ आ जाये,कब टूटकर बिखर जाये
कच्चे धागों से बँधी ,साँसों की ये लड़ियाँ
मगर सच-सच बतलाना कवि, क्या कभी
जोड़ पाये तुम ,उसके संग अपनी आत्मा
जिसके इशारे पर अम्बर घिरनी सा नाच रहा
शैल शृंग उलटकर गिरे जा रहे, गंध बन जो
बंद कलियों की पँखुरियों में गमक रहा
जिसकी उँगली थाम सितारे सीखते संभलना
जो सीमाओं में असीमित है, जिसके ज्योति-
तमस से मिल विश्व द्वाभा में विकसित है
जहाँ पहुँचकर अपनी कृति को निहार सको तुम
मिटा सको ,विधि के विधान की भी त्रुटियाँ
केवल स्वर शब्दों से, मरु के विशाल प्रांत में
प्राणों का कलरव भरा नहीं जा सकता
न ही इससे पूरी कहला सकती ,तुम्हारी साधना
यह सच है कवि को ठौर न मिला कहीं
सपने में भी वह भावों का रथ दौड़ाता
अपनी ही आँखों से बह रहे अश्रु- जल
में मन को डूब-डूबकर नहाने कहता
मोतियों को चुनने के दिन आये ,बोल-
बोलकर अपने ही संग करता छलना
रचना समापन होती तो नहीं
रूक जाता जीवन का हिलना
फ़िर नभ ,नीलिमा से पूछता
तुममें हैं और कौन - कौन सी
रसीली कविताएँ छुपी हुईं
जिसके लिए उत्तेजित है मेरी कल्पना
डा० श्रीमती तारा सिंह
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY