किस ग्रीवा में धरूँ विजय हार
उर की हरियाली को व्यथित करता
अब उनकी यादों का घाव
जो भारत माँ को लौह जंजीर से
मुक्ति दिलाने, हँसते-हँसते फ़ांसी
पर चढ़ गये,चले गये उस पार
पीछे छोड़ गये वृद्ध माता-पिता
पत्नि- पुत्र , सखा और घरबार
अब ढूँढ़ें कहाँ जाकर मैं उनको
किससे पूछूँ,किधर गया मेरा यार
किस ललाट पर तिलक लगाऊँ
किस ग्रीवा में धरूँ, विजय हार
कैसे दिखलाऊँ ,घर के झूमर की
झालर मलिन पड़ी है, दीवारों से
लटक रहा आदर्शों का हथियार
चूड़ियाँ,कलाइयों की भुजदंड बन गईं
फ़ांसी का फ़ंदा लगता सोने का हार
हाथ के कंगन हथकड़ियाँ लगतीं
अग्नि- वह्नि बन लहराता शृंगार
हदय वेदना की कराह,हुंकार बन गई
टूट गया स्वर लहरियों का सितार
प्राण कहता, अभी-अभी तो यहीं खड़े थे
भारत माता की जयकार लगा रहे थे
पल में यह कौन बजा दिया,समर डंकार
जो, राही घर की राह भूल गया
संतरी बन रणक्षेत्र को लिया स्वीकार
कोई तो ढूँढ़ो उनको,चिता रथ पर
चढ़कर , आखिर वे गये किस ओर
श्मशान गये, या कब्रिस्तान की ओर
जहाँ भी हों, उनसे कहो, योगी जैसे रखा
तुमने समर क्षेत्र में,माँ के मुँह की लाली
उसी तरह करना स्वदेश गौरव की रखवाली
तुम्हारे ही रक्त ,मांस ,हाड़- मज्जा से
भारत माँ के मंदिर का नव निर्माण हुआ
जिसमें जाकर,सुभाष ने एक दीप जलाया
आलोकित सारा हिन्दुस्तान हुआ
इतिहास तुमको सदा याद रखेगा,गंगा
बतलायेगी कैसे, उसका जल लाल हुआ
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY