चीरकर मध्य निशा की शांति
कोकिला छेड़ती जब पंचम तान
सच मानो प्रिये, मेरा अंग -अंग
मेरे हृदय के रुधिर वेग से
पल्लव सा प्रफ़ुल्लित हो उठता
प्राण प्रसन्नता की धारा में
डूबकर करने लगता स्नान
मुझे लगता, मेरी आहों का रुद्ध द्वार खोलकर
तुम मलयज की मधुर हिलोरें बन,मुझे बनाने
यहीं कहीं द्रुमों का अवलंब लेकर,खड़ी हो एकांत
तुम्हारी झुकी मदभरी पलकें मुझसे कह रही
मैं अग्यात लोक से छीप-छिपकर ,तुम्हारे लिये
अपनी नयन-सीपी में, सागर भर लाई हूँ साजन
इसे ढ़ाल-ढ़ालकर अपने अधर प्याले में भर
और कर लो , इस अतीत का मधु पान
लेकिन , जब मैंने पूछा प्रिये तुम्हारे
पगतल माटी को स्पर्श क्यों नहीं करते
क्यों नहीं तुम्हारे हृदय की प्रेमोच्छ्वासित
तरंगें , भू पर बिखर - बिखर कर
मुझको अपनी बाँहों में भरतीं
जिसके लिये बिलख रहा मेरा प्राण
तुमने कहा, मैं उड़ी थी,जहाँ से उसास बनकर
आज फ़िर से गंध बनकर हुई हूँ मूर्तिमान
मैं पथ –शूलों से नहीं डरती, मैं तो नित
ढूँढ़्ती हूँ, जिस जिंदगी को, जो गह्वर में
जाकर सोती, निज पीड़ा की छतरी तान
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