क्या है नियमन का आधार
काटना चाहती, मगर काट नहीं पाती
नियति,मेरे लघु जीवन का क्षीण तार
फ़िर भी नित करती, मेरे व्यथामय
जीवन पर, तीक्ष्ण वाणों से प्रहार
कभी काढ़कर मेरे हृदय लहू को
पीड़ा की कसौटी पर चढ़ाकर औंटती
कभी मुक्ति को ललक रहे पलकों पर
रुदन को हास बनाकर छलकाती
कहती, वेदना के इस परम उन्नत
शिखर से,भुवन लगता तुच्छ क्षार
रहे आबाद पीड़ा, जिसकी प्रेरणा से
प्राण, कूल को चूमने उठता बार-बार
ऐसे भी दहन मनुज का धरम है
मरण है , त्योहार इसलिए
महाकाल जब तक, मौन त्यागे
अपने व्यथित प्राण की वर्त्ती बना
जीवन दीप जलाती चलो, वही
ले जायगा तुमको भव-बंध के पार
मत अधीर हो, मत भरो, सिसकियों में चित्कार
रोग ,शोक, संताप मिलाकर ढला है संसार
मिथ्या है तर्क तुम्हारा,वृथा है तर्क का आधार
निस्सीमता के आगे बसता नहीं,जीवन का सार
जब कि काल की साँस है निस्सीमता
इसमें पचा हुआ है, प्राणी- जीवन का आकार
जिसे तुम सुन नहीं पाती, फ़ूटती नहीं झंकार
अगर ऐसा नहीं है, तो फ़िर तुम क्यों
सुना रही अपनी मूर्त वेदना के
गीतों को बड़े- बड़े शब्दों में ढाल
धुन रही मस्तक, धुनता देख संसार
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