क्यों छलक रहा नयन मेरा
जीवन भर का सुमन मनोरथ, अपने
अंजलि में भर,हँस-हँसकर बिखरा दी
जब, अपने स्वजन के चरणों में
तब आज क्यों उसके कुचले जाने
से , छलक रहा नयन मेरा
क्यों मेरा प्राण मेरे ही विरुद्ध
खड़ा होकर मुझे धिक्कार रहा
कह रहा , जिन फ़ूलों को
प्रभु के चरणों में रखना था
उसे तुमने यहाँ क्यों रखा
जब कि उसने भी यही चाहा था
ले आश्रय हमारी छाया में
स्वजन हमारा सुखी रहे
छूटे न जीने का लय, कभी
हम उनके सुख - दुख संग
ताल से ताल मिलाकर चलते रहे
सोचा , मेरे जीवन आहुति से
उनके अधरों पर किरण हास्य भरा रहेगा
इस व्यथित विश्व के आँगन में
दुख –विपदा का अंधड़ सदा से मनुज
स्वप्न की पंखुड़ियों को धरा धूल में
मिलाने , बहता आया है , बहता रहेगा
पर इनको कभी न छू पायेगा
तो फ़िर आज क्यों हृदय मेरा मरुस्थल में
डूब , अश्रु – नद बहा रहा
जब भी मेरा प्राण दीपक अशांत हुआ
देखो, बिछा रहा हूँ अपने तप-त्याग के
चिकने –चिकने सुमनों का सुरभि चूर्ण
धरातल पर, जो आज नहीं तो कल
तुम्हारे निश्वास मलय संग मिलकर
तुम्हारे जीवन के रंध्र-रंध्र को महकायेगा
बोल - बोलकर शांत किया
मगर आज अपना सर्वस्व लुटाकर
जब पड़ा हुआ हूँ, अपने जीवन के
अस्ताचल घाटी में कृश देह अस्थि
भर शेष लिये, तब क्यों मेरे जीवन की
मरी लालसा इतनी प्रखर हो उठी
क्यों कह रही,मेरे जीवन की आहुति की
धूम गंध से ,जो कानन समृद्ध हुआ
वह मेरे तप का मणिदीप
लेकर मेरे पास आयेगा
और घनी कालिमा की पटी में
दबी – लुकी सी , रह - रहकर मेघ
प्रकट की ज्योति सी , मेरे डूबते-
उगते नयन को देखकर रोयेगा
जब कि समय सागर में भरी हुई है
मनुज जीवन की कितनी ही करुण कहानियाँ
कोई मेरी कहानी को सुनने क्यों आयेगा
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