Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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माँ और सन्तान का रिश्ता

 


माँ और सन्तान का रिश्ता


    कहते हैं लोग, केवल भ्रूण वहण करना मातृत्व नहीं है 

     माँ तो वो होती है जो, जनमते सन्तान का मुख 

     चूमकर उसके जन्म की क्लांति हरण करती है 

     दृगों से निहार कर उसके अंगों में अमृत भरती है 

     गोदी में बिठाकर, उर से लगाकर वक्ष-खीर खिलाती है 

     विविध यातनायें सहकर भी, उसके लिए खुश रहती है 


            माँ और संतान का रिश्ता, शारीर-आत्मा सा होता है 

            जो देखने में बड़ा ही कोमल, रेशम धागे की तरह होता है 

            मगर मजबूती में बड़ा ही दृढ़ है, माँ वो देवी है 

            जो मरी हुई शिखा को भी अपने स्नेह से जिला देती है 

            संतान को गर्भ के लिए, कल्पना के श्रृंग पर चढ़ जाती है 

            और आँचल फैलाकर उस निराकार से कहती है 

            देव ! एक बार तुम अपने अगोचर हाथों से मेरा भ्रूण-पिंड 

            छू दो, जिससे तुम्हारी महिमा से मेरा लाल स्वस्थ होकर 

            जिए कभी रोग, शोक, परिताप से तपित न हो 


     भगवन ! मुझमें ऐसी दैविक शक्ति भर दो कि मैं सूर्य की

     किरणों को समेटकर पी लूँ जिससे कि उसकी अमर ज्योतियाँ 

     मेरे गर्भ में पल रहे संतान के शोणित में, ह्रदय में 

     प्राण में समा जायें और मेरा भी लाल, जन्म लेकर 

     इस भूतल पर सूर्य की तरह चमकता रहे


             बदले में तुम मुझे सुखी सरिता, सूखे समुद्र, धूसर अम्बर दे दो 

             चखूँगी मैं एक-एककर तुम्हारे सभी, तीखे फलों का स्वाद 

             विषलता से भी विष निचोड़कर पीऊँगी, पर मेरी भी है एक फ़रियाद 

             तुम अपने अंबर से, खुशियों की दो बूंद मेरे आँचल पर टपका दो 

             जिसे देकर अपने संतान को, पूरा कर सकूँ अपना फर्ज 

             तुम्हारा यह उपकार सदा रहेगा बनकर मेरी साँसों पर कर्ज 



कहते हैं, माँ के प्राणों की अभिलाषा जब उठती, संतान के 

लिए उठती है, जिसे वह अपने जीवन भर के वैभव से सत्कृत करती है 

किरणों की रज्जू को बाँहों में समेटकर, उसका अवलंब 

लेकर, आनन्द के शिखरों पर चढ़ जाती है, और वहाँ से 

औलाद के ले सुख रूप को नैनों में ढाल ले आती है 

संतान की चपलता में, कितनी आशाएँ चित्रित करती है  

शिथिल सुरभि से धरा पर कहीं पिछलन तो नहीं हुई 

बागों में जाकर, फल-फूल से, कलि-कलि से पूछती है 



       जहाँ माँ अपनी संतान से इतना स्नेह करे, अगर यही स्नेह 

       एक दिन अपराध बनकर सामने खड़ा हो जाए,तब कितना दुःख

       होता है, शापित-सा यह जीवन कंकाल बन भटकता है 

       ह्रदय की ज्वाला को अंतर से दबाए, दिन-रात घूंटती रहती है 

       सोचती है, जिसे हम खुद से भी ज्यादा चाहें, जिसके लिए मरें-जीयें 

       वह दग्ध स्वास छोड़कर यह कहे,यह जग मनोहर कृतियों का रंगस्थल है 

       नित जल-जलकर लघुदीप, विश्व को कितना स्नेह लुटाता है तो क्या 

       बदले में विश्व, उसके निचे, हरित कुञ्ज की छाया बन सोया रहता है 


काश कोई मुझे माँ की परिभाषा के साथ-साथ 

संतान की भि परिभाषा लिखकर समझा जाता 

तो आज मैं अपने को द्विधाग्रस्त नहीं पाती 

दुखिग्रस्त नहीं रहती, मेरा ह्रदय पीड़ा से कराहता नहीं रहता 

वह संतान ही कैसा, जो माँ के दूध को गंदा बतलाए 

जिसके आँचल को पकड़कर पला-बढ़ा , बड़ा हुआ 

उसी में खोंट निकालकर,उसे ही प्रतारित करे 

माँ का नाम दुश्मनों से जोड़कर, माँ शब्द को बदनाम करे 


रातों को जब दुनिया सोती, माँ संतान को उर लगाए जागती 

रहती समग्र रजनी बस इसी चिंता में, आँखों में काट देती 

कि काश, इस त्रिलोक के सारे सुख, मेरे आँचल में बरस जाते 

उसे समेटकर मैं अपने लाल को दे पाती, तो कैसा होता 

युग संचित तिमिर कुञ्ज में जलाकर अपने लहू का अर्क 

संतान की राह में उजाला भरनेवाली माँ की,गति तृषा तो 

तब और बढ़ जाती, जब छाले फूटकर पीड़ा बन जाते पाँव की



मैं मानती हूँ फलाशक्ति दूषित कर देता मनुज के कर्मों को 

पर क्या कोई बता सकता ऐसा एक भी जिव इस चराचर में 

जिसके कर्मों का ध्येय नहीं होता, जो सर्वथा 

मुक्त पवन की तरह, ध्येयहीन होकर अपने कर्म में लीन रहता 

अगर फलाश्क्ति का लोभ नहीं है, तो फिर

कौन सुख ऐसा है, जिसके लुट जाने भय से 

मनुज रात भर नींद से लड़कर जागता रहता     

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