माँ ! आज तुम्हारी पुण्यतिथि है
घर के कोने-कोने को, देह-प्राण-मन के भुवनों को
ममता के ज्योतिर्मय जल से प्लावित करने वाली
जीवन तम के नीचे, उज्ज्वल प्रकाश भरने वाली
माँ !आज तुम्हारी पुण्यतिथि है,दूरागत से आ रही
विचार ध्वनि, बता रही, तुम यहीं कहीं हो खड़ी
मगर माँ ! तुम कहाँ हो , तुम्हारे उस
कुसुम कुंज की हमारे घर से है कितनी दूरी
सूख चुके हैं, घर की सुंदरता के स्वर्णघट
हम रोते हैं अश्रु के आँचल से नयन ढँक
आँगन बीच तुलसी पौधा रहता है उदास
विहगों का दल चला वन की ओर,नीड़ को त्याग
कहते, नियति आँगन बीच मना रही तिमिर पर्व
ऐसे में यहाँ पल भर भी ठहरना होगा व्यर्थ
माँ ! तुम्हारा शयन - कक्ष , जहाँ से
आती थी ममता की हर वक्त पुकार
लगता नीरवता के गोपन स्वर में मुझसे
कह रहा हो आज, जिसकी स्मृति श्वास-
समीर बन रहती हर क्षण तुम्हारे साथ
जो तुम्हारे स्मृति तल्प पर,पड़ती दिखाई हर पल
अनगमन, मूक अविगत के संकेतों में
इच्छाओं की कंपन बन, सदैव रहती तुम्हारे साथ
माँ ! संस्कृति का वह लोकोत्तर भवन, जो
बना है तुम्हारी अक्षय स्मृति की नीव पर
आज भी,तुम्हारी कर्म-प्रेरणा का स्फ़ुरित शब्द
गौरव बन लहरा रहा, उसके उच्च शिखर पर
तुमने कहा था,कर्म-निरत जन ही होते देवों से पोषित
इसलिए पाप-कर्मों को छोड़ ,सत्कर्मों में रत रहो नित
श्रद्धा से कर प्राप्त वर, देवता तुल्य बनो, जिससे
शिशिर शयित जग में, नव स्वप्न हो पल्लवित
ईर्ष्या,द्वेष,घृणा की अग्नि में तप रही धरती को
अपने स्नेह सलिल के जल से सीचो
खगवृंद, चराचर, सबों पर अमृत जल उलीचो
तुम्हारे इस धर्मतंत्र के रोपन से पावन है
आज हमारा घर, मगर हमारे शैशव की
एकमात्र सहचरी, जिसकी छाया में सुख पाती
वेदना वाली सृष्टि भी, उससे अलग होकर
हम जीवन जीयें तो कैसे, तुम्हीं सोचो
तुमने सिखाया नाम, रूप, परिधान
मनुज अंग का बाह्य वसन है
इससे आत्मा को बल नहीं मिलता
न ही यह काल दंशन से बचा सकता है
काल रूप यम ही, निखिल विश्व का करते
नियमम , सूरज, चाँद, तारे, आलोकवर्ण
यह सब उसी के रूप का एक रूप है
फ़िर भी भू चर से कहता यह छाया मेरी
नहीं,तुम्हारी है,दुख,मकड़ी के जाल में डाल
जिंदगी को, जीने बाध्य करता जीवन
मगर माँ ! हमने तो अपना जीवन तुमको किया है समर्पित
हमार यह जीवन, तुम्हारी ममता और प्यार से है पोषित
हमें नहीं चाहिए, तुम्हारे विदेह प्राणों का बंधन
तुम उतर आओ, सशरीर धरा पर, धो लेने दो
अपने नयन नीर से तुम्हारा चरण पावन
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