मांसल रज से हो रहा है मिट्टी का नव-नव निर्माण
स्वप्न नहीं, कल्पना नहीं, यह मूर्त सत्य है
आज धरा –मनुज का कदम जा रहा है जिस ओर
वहाँ और कुछ नहीं, केवल भूत सभ्यता का खंडहर है
वहाँ इनसानों के मांसल रज से, पृथ्वी की मिट्टी का
फिर से नव –नव निर्माण हो रहा है, अंध
वीथियों में सत्य को घोंटकर , भू आनन को बदल
कर एक विध्वंशक लोक बन रहा है
धरती से सदाचार उठ गया, अनाचार फैल रहा है
आदर्श , रीति -नीतिविदा हो गई निखिल धरती से
हिंसा, बेईमानी, लूटपाट ,अट्टहास भर रहा है
प्रतिपल शून्यता में शून्य प्रतिफलित हो रहा है
इनसान-मुक्त हो,धरा, आदिम बर्बरता का प्रतिनिधि
मानव, इनसान के जीवन कंदर्प को जला दे रहा है
कहता है , चतुर्दिक फैल रही है तुमुल विभीषिका
धरणी को महाश्मशान बनानेसूरज आग बरसा रहा है
भस्म श्वेत दीखता है मनुज का तन प्रसाद , हमें
इसी भस्म-शेष से पृथ्वी की मिट्टी का नवनिर्माण कर
धूलि - धूलि में जो लिपटी हुई है, स्वर्ग की सुंदरता
उसको जगाकर उसके उर में, रंगों की लाली भरनी है
जिससे जग की डाली में, शाश्वत शोभा झूलती रहे
प्राकृतिक शक्तियों से मुक्त हमें अपनी धरणी बनानी है
मनुष्यता से बंचित मानव सोचता , यह मनुज मंत्र
देवों के बल से सहस्त्र गुना बलशाली है
हम क्यों नहीं, उस अकथनीय देवों का साथ
छोड़कर , इसके कदम -चिह्न पर चलें, जो हमें
और हमारी धरती को , आतपताप सेमुक्तकरेगा
उच्छिष्ट युगों का ध्वंश हो जायेगा , नैतिकता
का नव - सूरज आम्र मंजरित मलय लेकर आयेगा
अनैतिकता खत्म होगी,मनुज देव-विजित कहलायेग
राणों की आकांक्षाओं सेचिर उर्वर मानव
कोटि सूक्ष्म , सौन्दर्य ,प्रेम आनन्द भरे इसभुवन को
शोणित रंजित लोक बनाने के लिये ,तय कर लिया है
पलकों से जुड़ा रहे सपनोंका उन्माद , खोज-
खोज कर छिपा तम से धरती का माँग भर रहा है
जिसकी सीढी-सीढी उतरकर मनुज, गहन अंधकार में
भटकता रहे, खोज न पाए वह नया वृत कभी
धरा और आकाश , धूलि से एकाकार रहे
नामहीन सौरभ सेमनुज का आकुल अंतर, अगर
यूँ ही धरती की छाती पर फावड़ा चलाता रहा
तो एक दिन यह मानव - विहीन लोक हो जायगा
कभी यह लोक मानव-लोक था निशान तक मिट जायगा
समाधि की धूल से मिट्टी का नव निर्माण होगा
हरियाली तो होगी,मगर देखनेवाला इनसान नहीं होगा
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