महँगी जवान हो गई
रोज की तरह शंकर, उस रोज भी पत्थर तोड़कर जब पहाड़ पर से नीचे उतरा, उसका सर चकरा रहा था, पाँव काँप रहा था | वह किसी भी तरह घर पहुँचने की हालत में नहीं था, तभी किसी ने आकर, उसे अपना सहारा दिया और सँभालकर घर तक पहुँचा दिया | घर पहुँचकर शंकर, वहीँ दरवाजे पर नीम के पेड़ के नीचे आँखें बंद, अपनी बांस की खाट पर लेट गया और थके स्वर में अपने बेटे, बिरजू को आवाज देकर बुलाया, कहा--- बेटा ! आज तो गजब की गर्मी है , पहाड़ के पत्थर, सभी आग बन चुके हैं | लगता है सूर्य भगवान , अग्नि वर्षा कर, सब कुछ जला डालेंगे | पेड़-पौधे, पशु-पक्षी-प्राणी सभी झुलसकर ख़ाक हो जायेंगे | प्यास से मेरा तालू सूखा जा रहा है ; बेटा ! तू एक काम कर , बगल की दूकान से एक पाँव गुड़ खरीदकर ले आ ; पानी में घोलकर पीऊँगा, जब गला मीठा से तर होगा, तभी प्यास बुझेगी |
बिरजू का मुखमंडल, गुड़ लाने की बात से खिल उठा, उसने हाथ बढाते हुए कहा--- बाबू ! पैसे दो, मैं अभी लेकर आता हूँ |
शंकर, कमर के बटुए से एक दश का नोट निकालकर, बिरजू से कहा--- ये ले बेटा !
बिरजू पैसे लेकर जब जाने लगा, शंकर उसे आवाज देकर रोकते हुए कहा ---- बेटा ! अगर पैसे बच जायें, तब अपने लिए, लेमनचूस खरीद लेना |
बिरजू------ ठीक है बाबू ! अभी लेकर आता हूँ, कहता चला गया | मगर घंटों इंतजार के बाद भी जब बिरजू गुड़ लेकर नहीं लौटा ; तब शंकर चिंतित परेशान , उसे ढूंढने के लिये जाने सोच ही रहा था, कि उसकी नजर कूएँ के मुरेड़ पर पड़ी , देखा--- बिरजू चिंताशून्य होकर, कूएँ के मुरेड़ पर बैठा, लेमनचूस चूस रहा है |
यह देखकर शंकर को रोष आ गया | वह उठा और बिरजू के पास गया | उसका कान मरोड़ते हुए पूछा ---बेपरवाह बच्चा, तू गुड़ लाने गया था न, गुड़ कहाँ है ?
बिरजू , लेमनचूस चूसते हुए कहा --- बाबू ! तुमने जो पैसे दिये , उससे बस एक लेमनचूस ही हुआ | ऐसे में, मैं गुड़ कैसे लाता ? गुड़ के पैसे तो बचे नहीं, मैंने महँगी दीदी से कहा भी कि दीदी, मेरे बाबू जब पहाड़ से पत्थर तोड़कर घर आते हैं , तब उन्हें बड़ी प्यास लगी रहती है | वे कहते हैं , पानी के साथ गुड़ घोलकर पीयेंगे, तभी प्यास मिटेगी ; इसलिए मुझे गुड़ भी दे दो |
परंतु दीदी ने कहा, जाओ --- बाबू से बोल देना , वो दिन गए, जब दश रुपये में , गुड़- घी खरीद ले जाते थे | तब मेरे माता-पिता का ज़माना था ; अब मैं आ गई हूँ , अब थैले भरकर पैसे लाओ और पाकेट में सामान ले जाओ |
बिरजू की माँ सुभद्रा, पुत्र की बात सुनकर क्रोधित हो भवें चढ़ाकर बोली--- हे ईश्वर ! आज तक मैं जिसे बच्चा समझ रही थी, ये नालायक तो हम सब का बाप निकला, देखो हमें कैसे समझा रहा है, जैसे हमलोग नासमझ हैं ? कुछ देर के लिए सुभद्रा का सुखद क्षण जैसे टूट गया | क्रोधित हो बोली--- यह तो तपते बालू की तरह हमारे ह्रदय के सारे अरमान को ही अपनी चालाकी से झुलसा दे रहा है | इसे कौन समझाये, कि माता-पिता से झूठ बोलना, पाप है, पाप !
शंकर ने व्यथित स्वर में कहा---- सुभद्रा ! यह सब तुम्हारे अधिक लाड़ का नतीजा है | इसके पहले भी, जब कभी इसने इस प्रकार की गलतियाँ की है, तब तो तुम मुझे डाँटने तक नहीं दी बल्कि इसकी सौहार्द्रपूर्ण बातें सुनकर फूला नहीं समाती थी | आज समझ में आता है कि हम दोनों स्वयं निंदनीय हैं |
इधर बिरजू, माता-पिता के इन कटु वचनों से, बेपरवाह लेमनचूस चूसे जा रहा था | बिरजू की यह हरकत देखकर सुभद्रा का क्रोध प्रचंड हो उठा, उसने बिरजू से अविचलित भाव से पूछा ----- तुम किस दीदी की बात कर रहे हो ? जहाँ तक मुझे याद है , आज से 20 साल पहले, जब वे लोग कपड़े के व्यापारी थे, उनको कोई बेटी तो नहीं थी |
तभी शंकर अपने दिमाग पर जोर देते हुए बोल पड़ा --- हाँ, अब याद आया, सुभद्रा, सेठ की पोती जो बाहर पढ़ रही थी, लगता है, पढ़ाई पूरी कर वह , अब देश लौट आई है |
सुभद्रा ने संदिग्ध भाव से पूछा---- तब तो बिरजू ठीक ही बता रहा था, कि दीदी लगभग 20 साल की है |
शंकर, चिंतित हो कहा---- अगर वह बीस साल की है, तब तो और खतरनाक है, क्योंकि यह उम्र बड़ी उन्मादिनी होती है | वह किसी की नहीं सुनती | शरदकाल के ताल से भरे इसके यौवन पर कितने ही राजा, रंक हो गए और कितने तो दुनिया से ही निकल गए ! इसके सामने समाधिस्थ योगी का भी धैर्य हिल जाता है | अंगराई की मरोड़, कमर तोड़ देती है | इसके अस्त-व्यस्त भाव और उन्मत्त सी आँखें, बड़े-बड़े वीर योद्धाओं को भी डराये रखती हैं | इनमें धैर्य नहीं होता, शील नहीं होती | यह मिन्नतें नहीं सुनती, दर्द नहीं समझती , यह जो भी करती है, अपने आत्मसेवन के भाव लिये करती है | इतना ही नहीं, यह तो लोगों को छलमयी आशा देकर, कठोर दुराशा का खिलौना भी बनाकर रखती है | तुमने देखा नहीं, अपने पड़ोसी महमूद को, अपनी माँ की मृत्यु पर, दफ़न-कफ़न की व्यवस्था करने में , उसे अपने एकमात्र जीवन-यापन का सहारा, घर के पिछुवाड़े वाले जमीं को बेचना पड़ा | मृतक आत्मा की शांति और परितोष के लिए जकात और फतिहे की जरूरत थी ; कब्र बनवानी थी, विरादरी का खाना , गरीबों का खैरात इत्यादि , ऐसे कितने ही संस्कार थे , जिसे महँगी ने करने से रोक दिया |
पति की बात सुनकर सुभद्रा, प्रसन्नचित्त होने की चेष्टा करती हुई, बोली--- शंकर इस संसार में, हमसे भी दुखी, जीवन से निराश , चिंताग्नि में जलते हुए लोग जी रहे हैं, अपने पड़ोस के ही, सरना के बाबू को देखो, न पेट में रोटी है , न ही बदन पर साबूत धोती, फिर भी जी रहे हैं न | हमारे पास पेट भरने लायक आटा तो है, गुड़ का शरबत न सही , कूएँ में पानी है |
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