मुँदते ही नयन,किसी का स्मृति घन
व्योम की शून्यता से उतरकर, मेरे
नयन नीलिमा के लघु नभ में
आकर छा जाता, मुझसे कहता
मैं ही तुम्हारा त्रिलोक विजय हूँ
मैं ही हूँ तुम्हारा त्रिभुवन
मुझको ,शून्य से साकार इस सुषमा के
भुवन में -- अपनी गोदी में उठा लो
मेरे अंग-अंग को चूमकर,कर दो चंदन
मुझसे ही बिछड़कर तुम्हारी आँखों को
मरघट सा दीखता ,फ़ूलों का वन
मेरे लिए ही तुम्हारे ,शोणित में उमस
उबलता , मेरी ही स्मृति की आग से
तुम्हारे जीवन में बना रहता तपन
मेरा ही पाकमय रूप,तुम्हारे प्राण और
मन को लौह-कारा से चतुर्दिक घेरे रहता
मेरी ही मृदु यादों के प्रेम पुष्प से
भरा रहता , तुम्हारे जीवन का मधुवन
मैं ही तुम्हारा तीनों काल हूँ ,और मैं ही
हूँ तुम्हारे अतृप्त जीवन का रोदन
मैं ही पवन में लहराता हुआ
तुम्हारे विदग्ध जीवन का स्वर हूँ
मुझसे ही है तुम्हारे रक्त में कम्पन
मुझमें ही रसमग्न होकर जीती हो तुम
ज्योत्सना , धौत , सरित , तृण , तरु
सबमें मेरी ही परिछाहीं देखती हो तुम
और मधुर,अति-मधुर आशा के बीच अपने
उर चित्कार से भरती रहती हो नयन
मैं ही तुम्हारा वह जीवन अन्यायी हूँ
जो जग के जीवन निद्रा से बाँधकर
तुमको, तुममें ही रखा है सदा बंद
तुम जग के धूमिल नभ पर,मेरे लिये
नभ से इन्दु आरती उतारती रही और
मैं सहेजता रहा ,तुम्हारे लिए कफ़न
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