मैं भरूँगा तुममें वह अमिट रंग
नभ से नीरव , निस्तल तुम्हारा लोचन
शरद मेघ - सा शुभ्र सुंदर तुम्हारा मन
हँसी तुम्हारी ओस धुली जाड़े की धूप-सी
देता मुझको हर पल रसमय निमंत्रण
कहती जीवन की यह मध्य- भूमि
प्रेम की मधु -रस धारा से सिंचित होती
प्रेम बिना अचिर पूर्ण यह जीवन
इसलिए , बिखर रहे मेरे प्राणों के कण-कण की
त्वचा पर , तुम अपनी रसभाती उँगलियों का
संचार कर हुलस रहे जो , मेरे निगूढ कुंज में
कामद्रुम के , अनल रुधिर से बाहर आकर विकसने
उसे अपने भावुक , निधड़क अम्बर पर ले जाकर
अपनी अमर प्रीति की वह सुधा रस पिला दो और
बतला दो यह कैसी मादकता, कौन सा मंत्र
जिसे पाने योगी, योग भूल जाता, तपस्वी त्याग तप
इसमें जरा भी संशय नहीं , जब बजते तुम्हारे
निःशब्द नूपुर मेरे हृदय के भीतर छम -छम
तब थम जाता मेरी साँसों में , स्पंदन का क्रम
तुम्हारे वक्ष पर लहरातीं , ये यौवन की लहरें
मेरे स्वप्नों की स्मृतियों को जा-जाकर उसकातीं
सदा रहे स्वप्नों से रंजित मेरे नयन
नित आकर , मेरे रुधिर में गायन करतीं
स्मृति की ओट से तड़ित - सी झाँकतीं
पलक खुलते ही अंतर्धान हो जातीं
मेरे यौवन में भी उठती अभिलाषा,उस सुख के स्वागत को
जिसका सत्कार मैं करता आया , जीवन भर दूरागत से
मगर नीरवता के वर स्वरूप,उलझन रहती थी मेरे मन में
जो प्यार को ही मैंने क्षार किया,दिल की बात कह न सका उससे
हवा की साँसों में जो दर्द है , उसे भला कौन समझता
उसकी मर्म वेदना के दुखद गान को , कौन सुनता
मगर तुम हो स्फुट रेख की सीमा में,आकार भरने वाली
तुम्हारे समक्ष योगी , भोगी , क्या ग्यानी , सभी भिखारी
नर जीवन के सुंदर समतल पर , पीयूष-सी बहने वाली
आओ मेरे करीब, मैं भरूँगा, तुममें प्रीति का वह अमिट रंग
जिसके लिए कितनी सुखपूर्ण ,स्मृतियाँ रहतीं अरुचि बन
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY