मैं बूढ़ा पथिक इस जग का
मैं बूढ़ा पथिक इस जग का
मेरान यहाँ अपना कोई
चलता हूँ मैं अकेला ही, मेरी
राह निज अश्रु-जल से गीली
हिलते हड्डी के ढाँचेपर
जीवन का यह बूढा पंजर
कभी ज्योति तमस,हिम आतप
मधु पतझड़ का था रंग स्थल
झाँझर –सा मुख निकला बाहर
कहता , जन्म शील है मरण
मर- मर कर जीवन रहता अमर
नवल मुकुल मंजरियों से भव
फ़िर होगा शोभित,आई है पतझड़
लघु-लघु प्राणियों के अस्थि-मांस से
बना हैयह जग – घर
न्योछावर है ,इस पर आत्मा नश्वर
गर्मी, शीत, वह्नि, उल्का के भू पर
कैसे रह सकता , मनुज कलेवर
जवानीके स्वर्ण- पिंजरे में बंद
मानव आत्मा दीखता तो सुंदर
मगर दुख,पीड़ा से पीड़ित,एकाकी
कीशैय्या पर रहता चिर विह्वल
सोचता , नव प्रभात से चुंबित
रक्त कमल - सा यह जीवन
जिसके अधरों के शत दल पर
है मदिर प्रवाल का अधरामृत
नीलकमल – सी नील आँखें
स्वर्गप्रीति – सी होती प्रतीत
पलक झपकते अदृश्य हो छुप जाता
जीवन की जिंदगी से यह कैसी प्रीत
रक्त सुरा संगीत बनाकर ,उर–उर का
करता स्पंदन;जड़,चेतन एक ही पलकों
के पल्लव पर रहता हैपल्लवित
आजराह पूछती कोयल प्यारी
ऋतुपति का कुसुम नगर कहाँ है री
कैसेबतलाऊँ मैं, उसे जब तुम
भूलकरअपनी सुध - बुध सोयी
थीपी के संग, तब मौत साँस
गिन रही थी,तुम्हारे मधु जीवन की
है भरा आज मेरी आँखों में
जग की दी पीड़ा का पानी
देखो कैसे जीवन का स्वर्ण महल
टूटकर बिखरनेजा रहा धूलि में
मानो सैकत में खोती जा रही सरि
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