Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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मैं ही तुम्हारा त्रिलोक विजय हूँ

 

मैं ही तुम्हारा त्रिलोक विजय हूँ


मुँदते ही नयन,किसी का स्मृति घन

व्योमकी  शून्यता से उतरकर, मेरे

नयननीलिमा  के  लघुनभ  में

आकरछा  जाता, मुझसे  कहता

मैंही  तुम्हारा  त्रिलोकविजय हूँ

मैंही हूँ   तुम्हारात्रिभुवन


मुझको ,शून्य से साकार इस सुषमा के

भुवन  में -- अपनीगोदी में उठा लो

मेरे अंग-अंग को चूमकर,कर दो चंदन

मुझसे ही बिछड़कर तुम्हारी आँखों को

मरघट  सा  दीखता ,फ़ूलोंका  वन

मेरे लिए ही तुम्हारे ,शोणित में उमस

उबलता , मेरी  ही स्मृति की आग से

तुम्हारे  जीवन  मेंबना रहता तपन


मेराही  पाकमय रूप,तुम्हारे प्राण और 

मन को लौह-कारा से चतुर्दिक घेरे रहता

मेरीही  मृदु  यादोंके  प्रेम पुष्प से

भरारहता , तुम्हारे जीवन का मधुवन

मैं ही तुम्हारा तीनों काल हूँ ,और मैं ही

हूँतुम्हारे  अतृप्त  जीवनका  रोदन




मैंही पवनमेंलहराताहुआ

तुम्हारे विदग्धजीवन  का  स्वर  हूँ

मुझसे ही है तुम्हारे रक्त में होता कम्पन

मुझमेंही  रसमग्न होकर जीती हो तुम

ज्योत्सना  , धौत , सरित , तृण  , तरु

सबमेंमेरी  ही  परिछाहीं देखती हो तुम

और मधुर,अति-मधुर आशा के बीच अपने 

उरचित्कार  से  भरतीरहती हो नयन


मैं  ही तुम्हारा वह जीवन अन्यायी हूँ

जो  जगके जीवन निद्रा से बाँधकर

तुमको, तुममें  ही  रखाहै सदा बंद

तुम जग के धूमिल नभ पर,मेरे लिये

नभ से इन्दु आरती उतारती रही और 

मैं  सहेजता रहा ,तुम्हारे लिए कफ़न

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